Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

Previous | Next

Page 362
________________ ३५८ नवपदार्थ-मोक्षमार्ग वर्णन कर्मणामभावेन च सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च। प्राप्नोतीन्द्रियरहितमव्याबाधं सुखमनन्तम् ।।१५१।। आस्रवहेतुर्हि जीवस्य मोहरागद्वेषरूपो भावः । तदभावो भवति ज्ञानिनः । तदभावे भवत्यासवभावाभावः। आस्रवभावाभावे भवति कर्माभावः । कर्माभावेन भवति सार्वज्ञ सर्वदर्शित्वमव्याबाधमिन्द्रियव्यापारातीतमनन्तसुखत्वञ्चेति । स एष जीवन्मुक्तिनामा भावमोक्षः । कथमिति चेत् ? भावः खल्वत्र विवक्षित: कर्मावृतचैतन्यस्य क्रमप्नवर्तमानज्ञप्तिक्रियारूपः । स खलु संसारिणोऽनादिमोहनीयकोदयानुवृत्तिवशादशुद्धो द्रव्यकर्मानवहेतुः । स तु ज्ञानिनो मोहरागद्वेषानुवृत्तिरूपेण प्रहीयते । ततोऽस्य आस्रवभावो निरुद्ध्यते । ततो निरुद्धाञवभावस्यास्य मोहक्षयेणात्यन्तनिर्विकारमनादिमुद्रितानन्तचैतन्यवीर्यस्य शुद्धज्ञप्तिक्रियारूपेणान्तर्मुहूर्तमतिवाह्य युगपज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयेण कथञ्चित् कूटस्थज्ञानत्वमवाप्य ज्ञप्तिक्रियारूपे क्रमप्रवृत्त्यभावाझावकर्म विनश्यति । ततः कर्माभावे स हि भगवान्सर्वज्ञः सर्वदर्शी व्युपरतेन्द्रियव्यापाराव्याबाधानन्तसुखश्च नित्यमेवावतिष्ठते । इत्येष भावकर्ममोक्षप्रकार: द्रव्यकर्ममोक्षहेतुः परमसंवरप्रकारश्च ।। १५० - १५१।। अब मोक्षपदार्थका व्याख्यान है। अन्वयार्थ-( हेत्वभावे ) [ मोहरागद्वेषरूप] हेतुका अभाव होनेसे ( ज्ञानिनः ) ज्ञानीको ( नियमात् ) नियमसे ( आस्रवनिरोध: जायते ) आस्रवका निरोध होता है ( तु ) और ( आस्रवभावेन विना ) आस्वभावके अभावमें ( कर्मणः निरोधः जायते ) कर्मका निरोध होता है । (च) और ( कर्मणाम् अभावेन ) काँका अभाव होनेसे वह ( सर्वज्ञः सर्वलोकदी च ) सर्वज्ञ तथा सर्वलोकदर्शी होता हुआ ( इन्द्रियरहितम् ) इन्द्रियरहित, ( अव्याबाधम् ) अव्याबाध, ( अनन्तम् सुखम् प्राप्नोति ) अनंत सुखको प्राप्त करता है। टीका-यह, द्रव्यकर्ममोक्षके हेतुभूत परम-संवररूपसे भावमोक्षके स्वरूपका कथन है : आस्रवका हेतु वास्तवमें जीवका मोहरागद्वेषरूप भाव है। ज्ञानीको उसका अभाव होता हैं । उसका अभाव होनेसे आस्रवभावका अभाव होता है । आस्रवभावका अभाव होनेसे कर्मका अभाव होता है । कर्मका अभाव होनेसे सर्वज्ञता, सर्वदर्शिता और अव्याबाध इन्द्रियव्यापारातीत अनंत सुख होता है। सो यह जीवन्मुक्ति नामका भावमोक्ष है। 'किस प्रकार ?' ऐसा प्रश्न किया जाये तो निम्नानुसार स्पष्टीकरण है- ___ यहाँ जो 'भाव' विवक्षित है वह कर्मावृत ( कसे आवृत हुए ) चैतन्यकी क्रमसे प्रवर्तनेवाली ज्ञप्तिक्रियारूप है ! वह भाव वास्तवमें संसारीके अनादि कालसे मोहनीयकर्मके उदयके अनुसरणके वशसे अशुद्ध है तथा द्रव्यकर्मास्रवका हेतु है । परन्तु वही भाव ज्ञानीके मोहरागद्वेषवाली परिणतिरूपसे प्रहानिको ( प्रकृष्ट हानि को ) प्राप्त होता है, इसलिये उसके

Loading...

Page Navigation
1 ... 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421