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पंचास्तिकाय प्राभृत
३५१ इसके लिये भी युक्ति कहते हैं। यदि इस कालमें यथाख्यात नामका निश्चयचारित्र नहीं हो सकता है तो सरागचारित्र नामके अपहत संयमको तपस्वीजन पालें। जैसा कि तत्त्वानुशासनमें कहा है
यदि इस कालमें यथाख्यातचारित्रके धारी नहीं हैं तो क्या अन्य तपस्वी यथाशक्ति चारित्र न पालें?
यह जो कहा है कि सर्व श्रुतजानके धारियोंले ध्यान होता है सो उत्सर्ग अर्थात् उत्कृष्ट वचन है-अपवाद रूप या मध्यम व्याख्यानमें कहा है कि पाँच समिति और तीन गुप्तिके बतानेवाले श्रुत मात्रके ज्ञानसे ही केवलज्ञान हो जाता है । यदि ऐसा नहीं होता तो यह बात कैसे सिद्ध होती है जैसा कि कहा है "तुस मासं घोसंतो सिवभूदो केवली जादो' अर्थात् जैसे तुष ड छिलका ,और माष ड उड़द .या दाल भिन्न है ऐसे ही आत्मा अनात्मासे भिन्न है ऐसा घोखते हुए शिवभूति मुनि केवलज्ञानी हो गए ।
ऐसा ही चारित्रसारादि ग्रंथों में पलाक आदि पाँच निर्मथ मुनियोंके व्याख्यानमें कहा गया है। जो मुहूर्त पीछे केवलज्ञान उत्पन्न कर सकते हैं उनको निर्मथ कहते हैं वे क्षीणकषाय नाम बारहवें गुणस्थानवर्ती होते हैं । उनको उत्कृष्ट श्रुत चौदहपूर्वका ज्ञान होता है व जघन्य पाँच समिति व तीन गुप्तिका ज्ञान अर्थात् आठ प्रवचन मातृकाका ज्ञान होता है
और यह जो कहा है कि वज्रवृषभनाराच नामक पहिले संहननसे ध्यान होता है यह भी उत्सर्ग वचन है। अपवाद व्याख्यान यह है कि अपूर्व आदि गुणस्थानवर्ती उपशम तथा क्षपक श्रेणीमें शुक्लथ्यान होता है उसकी अपेक्षा उत्तम संहननका नियम है। अपूर्व गुणस्थानसे नीचे अन्य संहननवालोंके धर्मध्यान होनेका निषेध नहीं है । ऐसा ही तत्त्वानुशासनमें कहा है
जो यहाँ आगममें ध्यान वनकायवालेके कहा है वह श्रेणीके अपेक्षा शुक्लध्यानको लेकर कहा है, श्रेणीके नीचे ध्यानका निषेध नहीं है इस तरह थोड़े श्रुतके ज्ञानसे भी ध्यान होता है ऐसा जानकर शुद्ध आत्माको बतानेवाले संवर तथा निर्जराके कारण जरा व मरणके हरनेवाले कुछ भी सार उपदेशको ग्रहण करके ध्यान करना योग्य है । यह भाव है। कहा भी है
शास्त्रोंका पार नहीं है, आयुका काल थोड़ा है, हम लोगोंकी बुद्धि अल्प है इसलिये उसे ही सीखना चाहिये जिससे जरा व मरणका नाश हो जावे ।। १४६।।