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पंचास्तिकाय प्राभृत
३४५ संता-अथ निर्जरास्वरूपं कथयति,-संवर जोगेहिं जुदो-संवरयोगाभ्यां युक्तः निर्मलात्मानुभूतिबलेन शुभाशुभपरिणामनिरोध संवरः, निर्विकल्पलक्षणाध्यानशब्दवाच्यशुद्धोपयोगो योगस्ताभ्यां युक्तः । तवेहिं जो चेट्टदे बहुविहेहि-तपोभिर्यश्चेष्टते बहुविधैः अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशभेदेन शुद्धात्मानुभूतिसहकारिकारणैर्बहिरंगषड्विधैस्तथैव प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानभेदेन सहजशुद्धस्वस्वरूपप्रतपनलक्षणैरभ्यंतरषड्विधैश्च तपोभिर्वर्तते यः । कम्माणं णिज्जरणं बहुगाणं कुणदि सो णियदं-कर्मणों निर्जरणं बहुकानां करोति स पुरुषः निश्चितमिति । अत्र द्वादशविधतपसा वृद्धि गतो वीतरागपरमानंदैकलक्षण: कर्मशक्तिनिर्मूलनसमर्थः शुद्धोपयोगो भावनिर्जरा । तस्य शुद्धोपयोगस्य सामध्येन नीरसीभूतानां पूवोंपार्जितकर्मपुद्गलानां संवरपूर्वकभावेनैकदेशसंक्षयो द्रव्यनिर्जरनि सूत्रार्थः ।। १४४।।
हिन्दी ता० -उत्थानिका-आगे शुद्धात्माका अनुभव रूप शुद्धोपयोगसे साधनेयोग्य जो निर्जरा अधिकार है उसमें “संबर जोगेहिं जुदो'' इत्यादि तीन गाथाओंसे समुदायपातनिका है। अब निर्जरा स्वरूप कहते हैं
अन्वय सहित सामान्यार्थ-( जो ) जो साधु ( संवर जोगेहिं जुदो) भावसंवर और योगाभ्यास या शुद्धोपयोग सहित है और (बहुविहेहिं तवेहि) नानाप्रकार तपोंके द्वारा (चिठ्ठदे ) पुरुषार्थ करता है ( सो) वह ( वहुगाणं कम्माणं) बहुतसे कर्मोकी (णिज्जरणं) निर्जरा (णियदं कुणदि) निश्चयसे कर देता है ।
विशेषार्थ-निर्मल आत्माके अनुभवके बलसे शुभ तथा अशुभ भावोंका रुकना संवर है। निर्विकल्प लक्षणमय ध्यान शब्दसे कहने योग्य जो शुद्धोपयोग है सो योग है। शुद्धात्मानुभवके सहकारी कारण बाह्य छः प्रकार के तप-अनशन, अदमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन व कायक्लेश हैं तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैय्यावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छः तप स्वाभाविक शुद्ध अपने आत्माके स्वरूपमें तपने रूप अभ्यंतर तप हैं । जो साधु संवर और योगसे युक्त हो बारह प्रकार तपका अभ्यास करता है वह बहुतसे कर्मोकी निर्जरा अवश्य कर देता है। यहाँ यह भाव है कि बारह प्रकार तपके द्वारा वृद्धिको प्राप्त जो वीतराग परमानन्दमय एक शुद्धोपयोग सो भाव निर्जरा है । यही भाव द्रव्यकर्मोको जड़मूलसे उखाड़नेको समर्थ है। इस शुद्धोपयोगके बलसे पूर्वमें बाँधे हुए कर्म पुगलोंका रस रहित होकर संवर पूर्वक एक देशझड़ जाना सो द्रव्यनिर्जरा है ।।१४४।।