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पंचास्तिकाय प्राभृत
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अन्वयार्थ – (यस्य ) जिस ( विस्तस्य ) विरत ( मुनि) के (योगे ) योगमें ( पुण्यं पापं च) पुण्य और पाप (यदा ) जब ( खलु ) वास्तवमें ( न अस्ति ) नहीं होते, ( तदा ) तब ( तस्य ) उसके ( शुभाशुभकृतस्य कर्मणः ) शुभाशुभभावकृत कर्मका ( संवरणम् ) संवर होता है । टीका --- यह, विशेषरूपसे संवरके स्वरूपका कथन है I
जिस योगीको, विरत अर्थात् सर्वथा निवृत्त वर्त्तते हुए, योगमें-वचन, मन और कायसम्बन्धी क्रियामें - शुभपरिणामरूप पुण्य और अशुभपरिणामरूप पाप जब नहीं होते, तब उसे शुभाशुभभावकृत द्रव्यकर्मका स्वकारणके अभावके कारण, संवर होता है। इसलिये यहाँ ( इस गाथामें ) शुभाशुभ परिणामका निरोधरूप भावपुण्यपापसंवर द्रव्यपुण्यपापसंवरका प्रधान हेतु अवधारना ( समझना ) चाहिये || १४३ ||
इस प्रकार संवरपदार्थका व्याख्यान समाप्त हुआ ।
सं०ता० - अथायोगिकेवलिजिनगुणस्थानापेक्षया निरवशेषेण पुण्यपापसंवरं प्रतिपादयति, जरस - यस्य योगिनः । कथंभूतस्य ? विरदस्स- शुभाशुभसंकल्परहितस्य णत्थि नास्ति । जदा खलु यदा काले खलु स्फुटं । किं नास्ति । पुण्णं पावं च पुण्यपापद्वयं । क्व नास्ति । योगेमनोवाक्कायकर्मणि । न केवलं पुण्यपापद्रयं नास्ति । वस्तुतस्तु योगोपि । संवरणं तस्स तदातस्य भगवतस्तदा संवरणं भवति । कस्य संबंधि । कम्मस्स पुण्यपापरहितानंतगुणस्वरूपपरमात्मनो विलक्षणस्य कर्मणः । पुनरपि किंविशिष्टस्य । सुहासुहकदस्स- शुभाशुभकृतस्येति । अत्र निर्विकारशुद्धात्मानुभूतिर्भावसंवरस्तन्निमित्तद्रव्यकर्मनिरोधो द्रव्यसंवर इति भावार्थ: ।। १४३ || एवं नवपदार्थप्रतिपादकद्वितीयमहाधिकारमध्ये संवरपदार्थव्याख्यानमुख्यतया गाथात्रयेण सप्तमोंत्तराधिकारः समाप्तः ।। अथ शुद्धात्मानुभूतिलक्षणशुद्धोपयोगसाध्ये निर्जराधिकारे 'संवर जोगेहिं जुदो' इत्यादि गाथायेण समुदायपातनिका ।
हिन्दी ता० - उत्थानिका- आगे अयोगिकेवलिजिनके गुणस्थानकी अपेक्षा पूर्ण प्रकारसे पुण्य पापका संवर होजाता है ऐसा कहते हैं
अन्वय सहित सामान्यार्थ - ( जदा ) जिस समय ( जस्स विरदस्स) जिस साधुके (जोगे ) योगों में ( खलु ) निश्चयकरके (पुण्णं च पावं ) पुण्य और पाप भाव ( णत्थि ) नहीं होते हैं ( तदा ) तिस समय ( तस्स ) उस साधुके ( सुहासुहकदस्स) शुभ या अशुभ द्वारा प्राप्त ( कम्मस्स) कर्मबंधका ( संवरणं) संवर होजाता है ।
विशेषार्थ - जिसके शुभ और अशुभ सर्व संकल्प छूट जाते हैं उस भगवान परमात्माके arrai योगोंका ही संघर हो जाता है इसलिये पुण्य और पापसे रहित अनंत गुण स्वरूप परमात्मासे विलक्षण कर्मोंका पूर्ण संदर होजाता है। यहाँ यह कहा है कि निर्विकार शुद्ध आत्माकी अनुभूति- भाव संवर है और द्रव्यकर्मक आस्रवका रुकना द्रव्यसंवर है ।। १४३ ।।