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पंचास्तिकाय प्राभृत
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आगे सोलहका, तेरहवें सयोग केवली गुणास्थानसे आगे एकका बंध रुक जाता है। ज्योंज्यों मोह कम होता जाता है, कषाय घटता जाता है त्यों-त्यों कर्मप्रकृतियाँ रुकती जाती हैं । इस तरह १६+२५+१०+४+६+१*३६*५*१६×१×१२० एकसौबीस बंध योग्य प्रकृतियों का धीरे-धीरे संवर होता जाता है। पहले सूत्रमें द्रव्य आस्त्रवके कारणभूत भाव पापास्रवको कहा था यहाँ उन्होंके रोकने के लिये द्रव्य पापाय के रोकनेरूप द्रव्यसंवरके कारणरूप भाव आस्त्रवके रोकनेरूप भाव संवरका स्वरूप जानना चाहिये, यह सूत्रका अर्थ है ।। १४१ ।।
सामान्यसंवरस्वरूपाख्यानमेतत् ।
जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व सव्व- दव्वेसु ।
णासर्वादि सुहं असुहं समसुह- दुक्खस्स भिक्खुस्स ।। १४२ ।। यस्य न विद्यते रागो द्वेषो मोहो वा सर्वद्रव्येषु ।
नास्त्रवति शुभमशुभं समसुखदुःखस्य भिक्षोः । । १४२ । ।
यस्य रागरूपो द्वेषरूपो मोहरूपो वा समग्रपरद्रव्येषु न हि विद्यते भावः तस्य निर्विकारचैतन्यत्वात्समसुखदुःखस्य भिक्षोः शुभमशुभञ्च कर्म नास्त्रयति, किन्तु संक्रियत एव । तदत्र मोहरागद्वेषपरिणामनिरोधो भावसंवरः । तन्निमित्तः शुभाशुभकर्मपरिणामनिरोधो योगद्वारेण प्रविशतां मुगलानां द्रव्यसंवर इति । ११४२ ।।
अन्वयार्थ – (यस्य ) जिसे ( सर्वद्रव्येषु ) सर्व द्रव्योंके प्रति ( रागः ) राग, (द्वेषः ) द्वेष (वा ) या ( मोहः ) मोह ( न विद्यते ) नहीं है, ( समसुखदुःखस्य भिक्षोः ) उस समसुखदुःख भिक्षुको ( सुखदुःख के प्रति समभाववाले मुनिको ) ( शुभम् अशुभम् कर्म न आस्रवति) शुभ अशुभ कर्म आस्रवित नहीं होते ।
टीका - यह, सामान्यरूपसे संवरके स्वरूपका कथन है I
जिसे समग्र परद्रव्योंके प्रति रागरूप, द्वेषरूप या मोहरूप भाव नहीं है, उस भिक्षुको जो कि निर्विकारचैतन्यपनेके कारण समसुखदुःख है उसे शुभ और अशुभ कर्मका आस्रव नहीं होता, किन्तु संवर ही होता है। इसलिये यहाँ ( ऐसा समझना कि ) मोहरागद्वेषपरिणामका निरोध सो भावसंवर है, और वह जिसका निमित्त है ऐसा जो योगद्वारा प्रविष्ट होनेवाले पुगलों के शुभाशुभकर्मपरिणामका निरोध, सो द्रव्यसंवर है || १४२ ||
सं० ०ता० अथ सामान्येन पुण्यपापसंवरस्वरूपं कथयति, जस्स ण विज्जदि यस्य न विद्यते । स कः ? रागो दोसो मोहो व जीवस्य शुद्धपरिणामात् परमधर्मलक्षणाद्विपरीतो रागद्वेषपरिणामो मोहपरिणामो वा । केषु विषयेषु । सव्वदव्वेसु शुभाशुभसर्वद्रव्येषु । णासत्रदि सुहं असुहं- नास्त्रवति