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पंचास्तिकाय प्राभूत कथन है वहाँ इन पुण्य पापके आनेके पीछे स्थिति व अनुभाग बन्धके रूपसे उनके ठहरनेकी मुख्यतासे कथन है, वह विशेषता है। इस तरह नव पदार्थके बतानेवाले दूसरे महाअधिकारमें पुण्य व पापके आस्रवके व्याख्यानकी मुख्यतासे छ: गाथाओंके समुदायसे छठा अन्तर अधिकार पूर्ण हुआ।
अथ संवरपदार्थव्याख्यानम् अनन्तरत्वात्पापस्यैव संवराख्यानमेतत् । इंदिय-कसाय-सण्णा णिग्गहिदा जेहिं सुट्ट मग्गम्मि । जावत्तावत्तेहिं पिहियं पावासव-च्छिदं ।। १४१।।
इन्द्रियकषायसंज्ञा निगृहीता यैः सुष्ठु मार्गे ।
यावत्तावत्तेषां पिहितं पापास्रवच्छिद्रम् ।।१४१।। मागों हि संवरस्तत्रिमित्तिमिन्द्रियाणि कषायाः संज्ञाश्च यावतांशेन यावन्तं वा कालं निगृह्यन्ते तावतांशेन तावन्तं वा कालं पापास्रवद्वारं पिधीयते । इन्द्रियकषायसंज्ञा: भावपापासूचो द्रव्यपापास्रवहेतुः पूर्वमुक्तः । इह तन्निरोधो भावपापसंघरो अध्यायसंवरहेतुरवधारणीय इति ।।१४१।।
अब, संवरपदार्थका व्याख्यान है।
अन्वयार्थ (यैः ) जो ( सुष्ठु मार्गे ) सम्यग मार्गमें [ संवरमार्गमें ] रहकर [ इन्द्रियकषायसंज्ञाः ] इन्द्रियाँ, कषाय और संज्ञाओंका ( यावत् निगृहीताः ) जितना निग्रह करते हैं, [ तावत् ] उतना ( पापासवच्छिद्रम् ) पापास्रवका छिद्र ( तेषाम् ) उनके ( पिहितम् ) बन्द होता है।
टीका-पापके अनन्तर होनेसे, पापके ही संवरका यह कथन है।
मार्ग वास्तवमें संवर है, उसके निमित्तसे ( उसके हेतुसे ) इन्द्रियों, कषायों तथा संज्ञाओंका जितने अंशमें अथवा जितने काल निग्रह किया जाता है, उतने अंशमें अथवा उतने काल पापास्रवद्वार बन्द होता है। ___ इन्द्रियों, कषायों और संज्ञाओं-भावपापास्रव को द्रव्यपापास्त्रवका हेतु [ निमित्त ] पहले ( १४०वों गाथामें ) कहा है, यहाँ ( इस गाथामें ) उनका निरोध रूप भावपापसंवर-द्रव्यपापसंवरका हेतु अवधारना ( समझना ) ||१४१॥
__ सं० ता०-अथ ख्यातिपूजालाभदृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानबंधादिसमस्तशुभाशुभसंकल्पविकल्पवर्जितशुद्धात्मसंवित्तिलक्षणपरमोपेक्षासंयमसाध्ये संघरव्याख्याने "इंदियकसाय" इत्यादि गाथात्रयेण समुदायपातनिका ।।