Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचास्तिकाय प्राभृत
३१९ नरक, तिर्यंच इन चार गतियोंमेंसे किसीमें गमन करता है । वहाँ शरीररहित चिदानंदमयी एक स्वभावरूय आत्मासे विपरीत किसी स्थूल शरीरकी प्राप्ति होती है । उस शरीरके द्वारा अमूर्त अतीन्द्रिय परमात्म स्वरूपसे विरोधी इंद्रियें पैदा होती हैं। इन इंद्रियोंसे ही पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे रहित शुद्ध आत्माके ध्यानसे उत्पन्न जो वीतराग परमानंदमयी एक स्वरूप सुख है उससे विपरीत पंचेद्रियोंके विषय सुखमें परिणमन होता है। इसीके द्वारा रागादि दोष रहित व अनन्त ज्ञानादि गुणोंके स्थानभूत आत्म तत्वसे विलक्षण राग और द्वेष पैदा होते हैं। रागद्वेष रूप परिणामोंके निमित्तसे फिर पूर्वके समान कर्मों का बंध होता है । इस तरह रागादि परिणामोंका और कोके बन्धका जो परस्पर कार्य-कारण भाव है वही आगे कहे जानेवाले पुण्य पाप आदि पदार्थोका कारण है ऐसा जानकर पूर्वमें कहे हुए संसार-चक्रके विनाश करनेके लिये अव्याबाध अनन्त सुख आदि गुणोंका समूह अपने आत्माके स्वभावमें रागादि विकल्पोंको त्यागकर भावना करनी योग्य है। यह जीव किसी अपेक्षा परिणमनशील है इसलिये अज्ञानी जीव विकाररहित स्वसंवेदन ज्ञानको न पाकर पाप पदार्थका, आस्रव
और बंधका कर्ता होजाता है, कभी मंद मिथ्यात्वके उदयसे देखे सुने अनुभव किये हुए भोगोंको इच्छा रूप निदान बंधसे परम्पराय पापको लानेवाले पुण्य पदार्थका भी कर्ता हो जाता है। किन्तु जो ज्ञानी जीव है वह विकाररहित आत्मतत्त्वमें रुचि रूप तथा उसके ज्ञानरूप और उसीमें निश्चल अनुभव रूप ऐसे रत्नत्रयमयी भावके द्वारा संवर, निर्जरा तथा योक्ष पदार्थोका कर्ता होता है और जब पूर्वमें कहे हुए अभेद या निश्चय रत्नत्रयमें ठहरनेको असमर्थ होता है तब निर्दोष परमात्मस्वरूप अहंत व सिद्ध तथा उनके आराधक आचार्य, उपाध्याय व साधु इनकी पूर्ण व विशेष भक्ति करता है जिससे वह संसारके नाशके कारण व परम्परासे मुक्तिके कारण तीर्थंकर प्रकृति आदि विशेष पुण्य प्रकृतियोंको बिना इच्छाके व निदान परिणामके बाँध लेता है। इन प्रकृतियोंका बंध भविष्यमें भी पुण्य बंधका कारण है इसतरह पुण्य पदार्थका कर्ता होता है । इस प्रकारसे अज्ञानी जीव पाप, पुण्य, आस्रव व बन्ध इन चार पदार्थोका कर्ता है तथा ज्ञानी जीव संवर, निर्जरा व मोक्ष इन तीन पदार्थोंका मुख्यपने कर्ता है ऐसा भाव है । । १२८-१२९-१३० ।।
इस तरह नव पदार्थोक बतानेवाले दूसरे महाअधिकारके मध्यमें पुण्य पाप आदि सात पदार्थ जीव और पुद्गलके संयोग तथा वियोगरूप परिणतिसे उत्पन्न हुए हैं इस कथनकी मुख्यता करके तीन गाथाओंके द्वारा चौथा अन्तर अधिकार समाप्त हुआ ।
अथ पुण्यपापपदार्थव्याख्यानम् ।