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पंचास्तिकाय प्राभृत
३२७ स्वकीयस्निग्धरूक्षपरिणत्युपादनकारणेन संश्लेषरूपं बंधमनुभवति इति मूर्तकर्मणोर्बधप्रकारो ज्ञातव्यः । इदानीं पुनरपि मूर्तजीवमूर्तकर्मणोर्बधः कथ्यते । जीवो मुक्तिविरहिदो-शुद्धनिश्चयेन जीवो मूर्तिविरहितोपि व्यवहारेण अनादिकर्मबंधवशान्मूर्तः सन् । किं करोति । गाहदि ते-अमूर्तातीन्द्रियनिर्विकारसदानंदैकलक्षणसरसास्वादलिपीतेन मिश्गदरागादिपरिणामेन परिणतः सन् तान् कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलान् गाहते परस्परानुप्रवेशरूपेण बध्नाति । तेहिं उग्गहदि-निर्मलानुभूतिविपरीतेन जीवस्य रागादिपरिणामेन कर्मत्वपरिणतैस्तैः कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलस्कंधैः कर्तृभूतैर्जीवोप्यवगाह्यते बध्यत इति। अत्र निश्चयेनामूर्तस्यापि जीवस्य व्यवहारेण मूर्तत्वे सति बंध: संभवतीति सूत्रार्थः । तथा चोक्तं । “बंधं पडि एयत्तं लक्खणदो होदि तस्स णाणत्तं । तम्हा अमुक्तिभावो गंतो होदि जीवस्स" ||१३४।। इति सूत्रचतुर्थस्थलं गतं । एव नवपदार्थप्रतिपादकद्वितीयमहाधिकारमध्ये पुण्यपापव्याख्यानमुख्यत्वेन गाथावतुष्टयेन पंचमोत्तराधिकारः समाप्तः ।
हिन्दी ता०-उत्थानिका-आगे कहते हैं कि-प्राचीन बँधे हुए मूर्तीक कोक साथ नए मूर्तीक कर्मोका तथा अमूर्तीक जीवके साथ मूर्तीक कर्मों का बन्ध किस प्रकारसे है अथवा नैयायिक मतानुसार शिष्यने यह पूर्व पक्ष किया कि अमूर्तीक जीव मूर्तीक कर्मोको किस तरह बाँधता है उसका समाधान आचार्य नयविभाग द्वारा करते हैं
अन्वय सहित सामान्यार्थ-[ मुत्तो ] मूर्तीक कर्मपद्गल [ मुतं] मूर्तीक कर्मको ( फासदि) स्पर्श करता है । [ मुत्तो ] मूर्तीक कर्मपुद्गल [ मुत्तेण ] पहलेके बँधे हुए मूर्तीक कर्मके साथ [बंधम् ] बंधको [अणुहवदि] प्राप्त हो जाता है। [मुत्तिविरहिदो ] अमूर्तीक जीव [ ते ] उनको [गाहदि ] अवकाश देता है व [तेहिं] उन कर्मोसे [उग्गहदि ] अवकाशरूप हो जाता है।
विशेषार्थ-विकाररहित शुद्ध आत्माके अनुभवको न पाकर इस जीवने जो अगदि संतानद्वारा कर्म बाँध रक्खे हैं जो मूर्तीक कर्म जीवकी सत्तामें तिष्ठ रहे हैं, ये ही कर्म स्वयं स्पर्शादिवान् होनेके कारण मूर्तीक होते हुए नवीन आए हुए मूर्तीक स्पर्शादिवान् कर्मोको संयोगरूप स्पर्श करते हैं । इतना ही नहीं, वे ही मूर्तीक कर्म अमूर्तीक व अतीन्द्रिय निर्मल आत्मानुभवसे विपरीत जीवके मिथ्यादर्शन व रागद्वेषादि परिणामका निमित्त पाकर आए हुए नवीन मूर्तीक कर्मोके साथ अपने ही स्निग्ध रूक्ष परिणतिके उपादान कारणसे एकमेक होनेरूप बन्धको प्राप्त हो जाते हैं। इस तरह मूर्तीक कोंक परस्पर बंधकी विधि बताई। अब इस मूर्तीक जीवका मूर्तीक कर्मोके साथ बन्ध क्यों है उसे कहते हैं। शुद्ध निश्चयनयसे यह जीव अमूर्तीक है तथापि व्यवहारनयसे अनादि कर्मबंधकी संतान चली आने से मूर्तीक हो रहा है-अमूर्तीक और अतीन्द्रिय विकार रहित व सदा आनंदमयी एक-एक लक्षणधारी