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नवपदार्थ - मोक्षमार्ग वर्णन
रुचि वह निश्चय सम्यक्त्व है, उसहीका ज्ञान सो निश्चय सम्यग्ज्ञान है व उसहीमें निश्चल होकर अनुभव करना सो निश्चय सम्यक्चारित्र है । परद्रव्यकी इच्छाको त्याग करके उस ही आत्मद्रव्यमें विशेषपने तपना सो निश्चय तप है तथा अपने वीर्यको न छिपाकर साधन करना सो निश्चय वौर्य हैं। इस निश्चय पंच प्रकार आचारको तथा आचार आदि शास्त्रमें कथित क्रमसे इस ही निश्चय पंचाचार के साधनेवाले व्यवहार पंचाचारको इस तरह दोनोंको जो स्वयं आचरण करते हैं और दूसरोंसे आचरण कराते हैं वे आचार्य हैं। जो पाँच अस्तिकायमें शुद्ध जीवास्तिकायको, छः द्रव्योंमें शुद्ध जीवद्रव्यको, सात तत्त्वोंमें शुद्ध जीवतत्त्वको, नव पदार्थोंमें शुद्ध जीव पदार्थको निश्चयनयसे ग्रहण करने योग्य कहते हैं, तैसे ही निश्चय व्यवहाररूप रत्नत्रय लक्षणमयी मोक्षमार्गको जो बताते हैं व स्वयं जिसकी भावना करते हैं वे उपाध्याय हैं। जो निश्चयरूप चार तरहकी आराधनासे शुद्ध आत्मस्वरूपका साधन करते हैं वे साधु हैं। इस तरह पहले कहे हुए लक्षणोंके धारी जिनेन्द्रोंमें व साधु शब्दसे कहने योग्य आचार्य, उपाध्याय और साधुओं में जो बाहर और भीतर से भक्ति करना सो प्रशस्त राग कहा जाता है। इस शुभ रागको अज्ञानी जीव भोगोंकी इच्छारूप निदान भावसे करता है परन्तु ज्ञानी निर्विकल्प समाधिको न पाकर विषय या कषायरूप अशुभ रागोंके नाश करनेके लिये करता है, यह भावार्थ है ।। १३६ ।।
अनुकम्पास्वरूपाख्यानमेतत् ।
तिसिदं बुभुक्खिदं वा दुहिदं दट्ठूण जो दुहिद- मणो । पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि अणुकंपा ।। १३७ ।। तृषितं बुभुक्षितं वा दुःखितं दृष्ट्वा यस्तु दुःखितमनाः । प्रतिपद्यते तं कृपया तस्यैषा भवत्यनुकम्पा ।। १३७ ।।
'कञ्चिदुदन्यादिदुः खप्लुतमवलोक्य करुणया तत्प्रतिचिकीर्षाकुलितचित्त्वमज्ञानिनोऽनुकंपा ज्ञानिनस्त्वधस्तन भूमिकासु विहरमापणस्य जन्मार्णवनिमग्रजगदवलोकनान्मनाग्मनः खेद इति । । १३७ । ।
अन्वयार्थ : ----( तृषितं ) तृषातुर, ( बुभुक्षितं ) क्षुधातुर (वा) अथवा ( दुःखितं ) दुःखीको ( दृष्ट्वा ) देखकर ( यः तु ) जो जीव ( दुःखितमनाः ) मनमें दुःख पाता हुआ [ तं कृपया प्रतिपद्यते ] उसके प्रति करुणासे वर्तता है, ( तस्या एषा अनुकम्पा भवति ) उसकी वह अनुकम्पा है।
टीका: - यह, अनुकम्पाके स्वरूपका कथन है ।