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पंचास्तिकाय प्राभृत किसी तृषादिदुःखसे पीडित प्राणीको देखकर करुणाके कारण उसका प्रतिकार ( - उपाय ) करने की इच्छासे चित्तमें आकुलता होना वह अज्ञानीकी अनुकम्पा है। ज्ञानीकी अनुकम्पा तो, निचली भूमिकामें बिहरते हुए ( - स्वयं निचले गुणस्थानोंमे वर्तता हो तब ), जन्मार्णवमें निमग्न जगतके अवलोकनसे अर्थात् संसारसागरमे डूबे हुए जगतको देखनेमे ) मनमें किंचित् खेद होना वह है ।। १३७।। . सं० ता० - अथानुकंपास्वरूपं कथयति,-तृषितं वा बुमुक्षितं वा दुःखितं वा कमपि प्राणिने दृष्ट्वा, जो हि दुहिंदमणो-यः खलु दुःखितमनाः सन्, पडिवज्जदि तं किंवया-प्रतिपद्यनि स्वीकरोति तं प्राणिनं कृपया, तस्सेसा होदि अणुकंपा-तस्यैषा भवत्यनुकंपेति । तथाहि— तीव्रतृष्णातीव्रक्षुधातीव्ररोगादिना पीडितमवलोक्याज्ञानी जीव: केनाप्युपायेन प्रतीकारं करामीति व्याकुलो भूत्वानुकंपा करोति, ज्ञानी तु स्वस्य भावनामलभमान: सन् संक्लेशपरित्यागेन यथासंभवं प्रतीकारं करोति तं दुःखितं दृष्ट्वा विशेषसंवेगवैराग्यभावनां च करोतीति सूत्रतात्पर्य ।।१३७।।
हिन्दी ता०-उत्थानिका-आगे अनुकम्पाका स्वरूप कहते हैं
अन्वय सहित सामान्यार्थ-( जो दु) जो कोई ( तिसिदं ) प्यासे, ( बुभुक्खिदं) भूखे [वा ] तथा ( दुहिदं) दुःखीको ( दटठूण ) देखकर ( दुहिदमणो) अपने मनमें दुःखी होता हुआ [तं] उसको [किवया ] दयाभावसे [ पडिवज्जदि] स्वीकार करता है अर्थात् उसका दुःख दूर करता है [ तस्स ] उस दयावानके [ एसा ] यह [ अणुकंपा ] दया [ होदि ] होती है।
विशेषार्थ--अज्ञानी जीव किसीका तीव्र प्यास, भूख व तीव्र रोगसे पीडित देखकर किस तरह इसका यल करूँ ऐसा सोचकर व्याकुल होता हुआ दयाभाव करता है किन्तु सम्यग्ज्ञानी अपने आत्माकी भावनाको न प्राप्त करता हुआ संक्लेश परिणाम न करके उसका यथासंभव उपाय करता है-उसे दुःखी देखकर विशेष संवेग तथा वैराग्यकी भावना भाता है, यह सूत्र का भाव है ।।१३७।।
चित्तकलुषत्वस्वरूपाख्यानमेतत् । कोधो व जदा माणो माया लोभो व चित्त-मासेज्ज । जीवस्स कुणदि खोहं कलुसो ति य तं बुधा वेति ।।१३८।।
क्रोधो वा यदा मानो माया लोभो वा चित्तमासाद्य ।
जीवस्य करोति क्षोभं कालुष्यमिति च तं बुधा वदन्ति ।। १३८।। क्रोधमानमायालोभानां तीव्रोदये चित्तस्य क्षोभः कालुष्यम् । तेषामेव मंदोदये तस्य