Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 335
________________ पंचास्तिकाय प्राभृत ३३१ अथ प्रशस्तरागस्वरूपमावेदयति, अर्हत्सिद्धसाधुषु भक्तिः । धम्मम्हि जा च खलु चेट्ठा-धमें शुभरागचारित्रे या खलु चेष्टा, • अणुगमणंपि अनुगमनमनुव्रजननुकूलवृत्तिरित्यर्थ: । केषां । गुरूणं-गुरूणां, पसत्थरागोत्ति उच्चंति एते सर्वे पूर्वोक्ताः शुभभावाः परिणामाः प्रशस्तराग इत्युच्यते तथाहि-निर्दोषपरमात्मनः प्रतिपक्षभूतं यदातरौद्ररूपध्यानद्वयं तेनोपार्जिता या ज्ञानावरणादिमूलोत्तरप्रकृतयस्तासां रागादिविकल्परहितधर्मध्यानशुल्कध्यानद्वयेन विनाशं कृत्वा क्षुधाधष्टादशदोषरहिताः केवलज्ञानाद्यनंतचतुष्टयसहिताश्च जाता ये ते ऽहंतो भण्यते । लौकिकांजनसिद्धादिविलक्षणा ज्ञानावरणाद्यष्टकर्माभावेन सम्यक्त्वाद्यष्टगुणलक्षणा लोकाग्रनिवासिनश्च ये ते सिद्धा भवंति । विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावात्मतत्वविषये या निश्चयरुचिस्तथा परिच्छित्तिस्तथैव निश्चलानुभूति: परद्रव्येच्छापरिहारेण तत्रैवात्मद्रव्ये प्रतएनं तपश्चरणं स्वशत्त्यनवगृहनेनानुष्ठानमिति निश्चयपंचाचार: तथैवाचारादिशास्त्रकचित्तक्रमेण तत्साधकव्यवहारपंचाचार: इत्यभयमाचारं स्वयमाचारंत्यन्यानाचारयंति ये ते भवंत्याचार्याः । पंचास्तिकायषडद्रव्यसप्ततत्त्वनपदार्थेष मध्ये जीवास्तिकार्य शुद्धजीवद्रव्यं शुद्धजीवतत्त्वं शुद्धजीवपदार्थं च निश्चयनयेनोपादेयं कथयंति तथैव भेदाभेदरत्नत्रयलक्षणं मोक्षमार्ग प्रतिपादयंति स्वयं भावयंति च ये ते भवंत्युपाध्यायाः । निश्चयचतुर्विधाराधनया ये शुद्धात्मस्वरूपं साधयंति ते भवंति साधक इति। एवं पूर्वोक्तलक्षणयोर्जिनसिद्धयोस्तथा साधुशब्दवाच्येष्वाचार्योपाध्यायसाधुषु च या बाह्याभ्यंतरा भक्तिः सा प्रशस्तरागो भण्यते । तं प्रशस्तरागं अज्ञानी जीवो भोगाकांक्षारूपनिदानबंधेन करोति । ज्ञानी पुनर्निर्विकल्पसमाध्यभावे विषयकषायरूपाशुभरागविनाशार्थं करोतीति भावार्थः ।।१३६।। हिन्दी ता०-उत्थानिका-आगे प्रशस्त रागका स्वरूप कहते हैं अन्वय सहित सामान्यार्थ-( अरहंतसिद्धसाहुसु) अरहंत, सिद्ध व साधुओंमें ( भत्ती) भक्ति ( य) और ( थम्मम्मि ) शुभ रागरूप चारित्रमें ( जा खलु चेट्ठा) जो निश्चय करके उद्योग करना च ( गुरूणं पि अणुगमणं) गुरुओंके अनुकूल चलना ( पसस्थरागो त्ति) यह प्रशस्तराग है ऐसा ( वुच्चंति) आचार्य कहते हैं। विशेषार्थ-दोषरहित परमात्माके ध्यानके विरोधी जो आर्तध्यान व रौद्रध्यान दो खोटे ध्यान हैं उनसे ज्ञानावरणादि आठमूल व उनके भेदरूप उत्तर प्रकृतियोंका बन्ध होता है । इन ही कर्मप्रकृतियोंको रागादि विकल्पोंसे रहित धर्मध्यान और शुक्लध्यानोंके बलसे नाश करके जो क्षुधा, तृषा आदि अठारह दोषोंसे रहित हो केवलज्ञानादि अनंत अतुष्टय के धारी हैं वे अर्हत कहे जाते हैं। जिन्होंने ज्ञानावरण आदि आठों कर्मोका नाश करके सम्यग्दर्शन आदि गुणोंको प्रगट करके लोकके अग्रभागमें निवास प्राप्त करलिया है वे लौकिक अञ्जनसिद्ध आदिसे विलक्षण, सिद्ध हैं। विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभावमयी आत्मतत्त्वमें जो

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