Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 333
________________ पंचास्तिकाय प्राभृत ३२९ निमित्तमात्ररूपसे कारणभूत हैं इसलिये द्रव्यपुण्यास्त्रवके पूर्व भावपुण्यास्त्रव होते हैं और वे [ शुभ भाव ] जिनका निमित्त हैं ऐसे जो योगद्वार प्रविष्ट होनेवाले पुद्गलोंके शुभकर्मपरिणाम वे द्रव्यपुण्यास्त्रव हैं ॥१३५॥ सं०ता० - अथ भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्ममतिज्ञानादिविभावगुणनरनारकादिविभावपर्यायैः शून्यात् शुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपाभेदरन्वयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नपरमानंदसमरसीभावेन पूर्णकलशवद्भरितावस्थात्परमात्मनः सकाशाद्भिन्न शुभाशुभास्त्रवाधिकारे गाथा षट्कं भवति तत्र गाथाषट्कमध्ये प्रथमं तावत्पुण्यास्त्रवकथनमुख्यत्वेन "रागो जस्स पसत्थो” इत्यादिपाठक्रमेण गाश्श्राचतुष्टयं, तदनंतरं पापास्स्रवे 'चरिया पपादबहुला' इत्यादि गाथा द्वयं इति पुण्यपापास्रवव्याख्याने समुदायपातनिका तद्यथा । अथ निरास्रवशुद्धात्मपदार्थात्प्रतिपक्षभूतं शुभास्त्रवमाख्याति – रागो जस्स पसत्थो - रागो यस्य प्रशस्त: वीतरागपरमात्मद्रव्याद्विलक्षणः पंचपरमेष्ठिनिर्भरगुणानुरागरूपः प्रशस्तधर्मानुरागः । अणुकंपा संसिदो य परिणामो अनुकंपासंश्रितञ्च परिणामः दयासहितो मनोवचनकायव्यापाररूप: शुभपरिणामः चित्त िणत्थि कलुसो - चित्ते नास्ति कालुष्यं मनसि क्रोधादिकलुषपरिणामो नास्ति। पुण्णं जीवस्स आसवदि — यस्यैतें पूर्वोक्त: त्रयः शुभपरिणामा: संति तस्य जीवस्य द्रव्यपुण्यास्रवकारणभूतं भावपुण्यमास्रवतीति सूत्राभिप्रायः || १३५ || एवं शुभास्त्रवं सूत्रगाथा गता । पीठिका - आगे यह आत्मा निश्चयसे परमात्मा स्वरूप है । यह भाव कर्म, द्रव्य कर्म, व नोकर्म तथा मतिज्ञानादि विभावगुण व नर नारक आदि विभाष पर्याय इन सबसे शून्य है तथा शुद्ध आत्माके भले प्रकार श्रद्धान, व भलेप्रकार ज्ञान व भलेप्रकार आचरण रूप अभेद रत्नत्रयमयी विकल्परहित समाधि भावसे उत्पन्न होनेवाले समता रसके भावसे पूर्ण कलशकी तरह भरा हुआ है। इस आत्मा से भिन्न जो शुभ व अशुभ आस्रवका अधिकार है, उसमें छः गाथाएँ हैं । पहले पुण्याश्रवके कहनेकी मुख्यतासे "रागो जस्स पसत्थो " इत्यादि पाठक्रमसे चार गाथाएँ हैं। फिर पापास्स्रवको कहते हुए "चरिया पमादबहुला' इत्यादि गाथाएँ दो हैं । इस तरह पुण्य व पापके आस्त्रयके व्याख्यानमें समुदायपातनिका है । हिन्दी ता० - उत्थानिका- आगे आस्रवरहित शुद्ध आत्मपदार्थसे प्रतिकूल जो शुभ are है उसका वर्णन करते हैं अन्य सहित सामान्यार्थ - ( जस्स) जिस जीवके (पसत्यो ) प्रशस्त या भला (रागो ) राग है ( य ) और ( अणुकंपासंसिदो ) दयासे भीजा हुआ ( परिणामो ) भाव है, तथा

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