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पंचास्तिकाय प्राभृत अहंकार रहित शुद्धात्माकी प्राप्तिसे विरुद्ध मान है । प्रपंचरहित आत्माके लाभसे विपरीत माया है। शुद्ध आत्माकी भावनासे उत्पन्न होनेवाली तृप्तिको रोकनेवाला क्षोभ है। क्षोभरहित शुद्ध आत्माके अनुभवसे विपरीत आकुलित भावको चित्तक्षोभ कहते हैं। इन क्रोधादि कषायोंकी तीव्रतासे जो चित्तमें क्षोभ होता है उसको कलुषता कहते हैं। इस कलुषतासे विपरीत भावको अकलुषता या मंदकषायरूप शुभ राग कहते हैं यही भाव पुण्यकर्मके आस्रवका कारण है-यह भाव कभी अज्ञानी मिथ्यादृष्टिको भी अनंतानुबंधी कषायके मंद उदय होने पर होजाता है तथा ज्ञानीके भी यह शुभ भाव तब होता है जब उसको विकार रहित स्वानुभवका लाभ नहीं होता व ज्ञानी खोटे ध्यानसे बचनेके लिए इस चित्तकी प्रसन्नतारूप भावको संतोष, दयाभाव, क्षमा आदिके रूपसे करता है ।। १३८।।
इस तरह चार गाथाओंसे पुण्यात्रवके करणोंको बताया।
पापास्त्रवस्वरूपाख्यानमेतत् चरिया पमाद-बहुला कालुस्सं लोलदा य विसयेसु । पर-परिताथ-पवादो पायस्त च आसवं कुणदि ।।१३९।।
चर्या प्रमादबहुला कालुष्यं लोलता च विषयेषु ।
परपरितापापवादः पापस्य चास्त्रवं करोति ।।१३९।। प्रमादबहुलचर्या परिणतिः, कालुष्यपरिणतिः, विषयलौल्यपरिणतिः, परपरितापपरिणतिः, परापवादपरिणतिश्चेति पञ्चाशुभा भावा द्रव्यपापास्त्रवस्य निमित्तमात्रत्वेन कारणभूतत्वात्तदानवक्षणादूर्ध्वं भावपापाखवः । तन्निमित्तोऽशुभकर्मपरिणामो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां द्रव्यपापास्रव इति ।।१३९ ।।
अन्वयार्थ—(प्रमादबहुला चर्या ) बहुत प्रमादवाली चर्या, ( कालुष्यं ) कलुषता, ( विषयेषु च लोलता ) विषयोंके प्रति लोलुपता, ( परपरितापापवादः ) परको परिताप करना तथा परके अपवाद बोलना वह ( पापस्य च आस्वं करोति ) पापका आस्रव करता है।
टीका-यह, पापास्रवके स्वरूपका कथन है ।
बहुत प्रमादवाली चर्यारूप परिणति, विषयलोलुपतारूप परिणति, परपरितापरूप परिणति ( परको दुःख देनेरूप परिणति) और परके अपवादरूप परिणति—यह पाँच अशुभ भाव द्रव्यपापास्रवको निमित्तमात्ररूपसे कारणभूत हैं इसलिये 'द्रव्यापापास्रवके' पूर्व भावपापास्रव हैं
और वे [अशुभ भाव] जिनका निमित्त हैं ऐसे जो योगद्वारा प्रविष्ट होनेवाले पुद्गलोंके अशुभकर्मपरिणाम वे द्रव्यपापास्रव हैं ।।१३९।।