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नवपदार्थ - मोक्षमार्ग वर्णन
(चित्ते ) चित्तमें (कालुस्सं ) कालुसपना या मैलापन ( पाल्थि ) नहीं है ( जीवस्स) उस जीवके ( पुण्णं ) पुण्य कर्म ( आसर्वादि ) आता है ।
विशेषार्थ - वीतराग परमात्म द्रव्यसे विलक्षण अरहंत सिद्ध आदि पाँच परमेष्ठियोंमें पूर्ण गुणानुराग सो प्रशस्त धर्मानुराग है। दया सहित मन, वचन कायका व्यापार सो अनुकंपाके आश्रय परिणमन है । क्रोधादि कषायको कलुषता कहते हैं। जिस जीवके भावोंमें धर्म-प्रेम है व दया है तथा कषाय की तीव्रताका मैल नहीं है उस जीव के इन शुभ परिणामोंसे द्रव्य पुण्य कर्मके आस्त्रवमें कारणभूत भावपुण्यका आस्रव होता है, यहाँ सूत्रमें भावपुण्यास्त्रवका स्वरूप कहा है ।। १३५ । ।
इस तरह शुभ आस्त्रवको कहते हुए गाथा पूर्ण हुई ।
प्रशस्तरागस्वरूपाख्यानमेतत् ।
अरहंत - सिद्ध- साहुसु भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा ।
अणुगमणं पि गुरूणं पसत्थ- रागो त्ति अर्हत्सिद्धसाधुषु भक्तिर्धर्मे या च खलु चेष्टा ।
वुच्चति ।। १३६ । ।
अनुगमनमपि गुरूणां प्रशस्तराग इति ब्रुवन्ति । । १३६ ।।
अर्हत्सिद्धसाधुषु भक्तिः, धर्मे व्यवहारचारित्रानुष्ठाने वासनाप्रधाना चेष्टा, गुरूणामाचार्यादीनां रसिकत्वेनानुगमनम् एषः प्रशस्तो रागः प्रशस्तविषयत्वात् । अयं हि स्थूललक्ष्यतया केबलभक्तिप्रधानस्याज्ञानिनो भवति । उपरितनभूमिकायामलब्धास्पदस्था- स्थानरागनिषेधार्थं तीव्ररागज्वरविनोदार्थं वा कदाचिज्ज्ञानिनोऽपि भवतीति । । १३६ ।।
अन्वयार्थः - ( अर्हत्सिद्धसाधुषु भक्ति: ) अर्हत- सिद्ध-साधुओं के प्रति भक्ति, ( धर्मे या च खलु चेष्टा ) धर्ममें यथार्थतया चेष्टा ( अपि गुरूणाम् अनुगमनम् ) और गुरुओंका अनुगमन, ( प्रशस्तरागः इति ब्रुवन्ति ) वह 'प्रशस्त राग' कहलाता है।
टीका: - यह, प्रशस्त रागके स्वरूपका कथन है ।
अर्हत-सिद्ध- साधुओंके प्रति भक्ति, धर्ममें व्यवहारचारित्रके अनुष्ठानमें- भावनाप्रधान चेष्टा और गुरूओंका - प्राचार्यादिका - रसिकरूपसे ( भक्तिपूर्वक ) अनुगमन, वह 'प्रशस्त राग' हैं क्योंकि उसका विषय प्रशस्त हैं।
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यह (प्रशस्त राग ) जो स्थूल दृष्टि से ( स्थूलताकर ) मात्र भक्तिप्रधान हैं ऐसे अज्ञानीको होता है, उच्च भूमिकामें ( - ऊपरके गुणस्थानों में ) स्थिति — स्थिरता प्राप्त न की हो तब, अस्थानका राग रोकने हेतु अथवा तीव्र रागज्वर मिटानेके हेतु, कदाचित् ज्ञानीको भी होता है ।। १३६ ।