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नवपदार्थ-मोक्षमार्ग वर्णन सुखरसक स्वादसे विपरीत जो मिथ्यादर्शन व राग द्वेषादि परिणाम हैं इन भावोंसे परिणमन करता हुआ यही कर्मबन्य सहित मूर्तीक जीव उन कर्मवर्गणायोग्य पुद्गलोंको अपने प्रदेशोंमें अवकाश देता है । इस हीका अर्थ यह है कि उनको बाँधता है । अर्थात् यह जीव ही अपनी निर्मल आत्मानुभूति से विपरीत रागादि परिणाम द्वारा कर्मभावमें परिणत हुए कर्मवर्गणा योग्य पुगलकी वर्गणाओं से अवगाह पाता है अर्थात् उनसे बँध जाता है। यहाँ यह भाव है कि जीव निश्चयसे अमूर्तीक है तथापि व्यवहारसे मूर्तीक है। इसहीसे जीवमें कर्मबंध संभव है। ऐसा ही कहा है
कर्मबन्धकी अपेक्षा जीवके साथ पुद्गलका एकमेक सम्बन्ध है, परन्तु लक्षणकी अपेक्षा दोनोंमें भिन्न-भिन्न पना है इसलिये एकान्तसे जीवके अमूर्तीक भाव नहीं है ।। १३४।।
इस तरह चौथा स्थल पूर्ण हुआ-इस प्रकार नव पदार्थको बतानेवाले दूसरे महा अधिकार में पुण्य व पापके व्याख्यानकी मुख्यतासे चार गाथाओके द्वारा पाँचमा अन्तर अधिकार समाप्त हुआ।
अथ आस्रव पदार्थव्याख्यानम् अब आस्रवपदार्थका व्याख्यान है। पुण्यात्रवस्वरूपाख्यानमेतत् । रागो जस्स पसत्थो अणुकंपा-संसिदो य परिणामो। चित्तम्हि णस्थि कलुसं पुण्णं जीवस्स आसवदि ।।१३५।।
रागो यस्य प्रशस्तोऽनुकम्पासंश्रितश्च परिणामः ।
चित्ते नास्ति कालुष्यं पुण्यं जीवस्यास्रवति ।। १३५।। प्रशस्तरागोऽनुकम्पापरिणतिः चित्तस्याकलुषत्वश्चेति त्रयः शुभा भावाः द्रव्यपुण्यात्रवस्य निमित्तमात्रत्वेन कारणभूतत्वात्तदास्रवक्षणादूर्ध्व भावपुण्यास्त्रवः । तन्निमित्तः शुभकर्मपरिणामो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां द्रव्यपुण्यात्रव इति ।।१३५।।
अन्वयार्थ:-( यस्य ) जिस जीवको ( प्रशस्त: रागः ) प्रशस्त राग है, ( अनुकम्पासंश्रित: परिणामः ) अनुकम्पायुक्त परिणाम है ( च ) और ( चित्ते कालुष्यं न अस्ति) चित्तमें कलुषताका अभाव है ( जीवस्य ) उस जीवको ( पुण्यम् आस्रवति ) पुण्य का आस्रव होता है।
टीका:-यह, पुण्यास्रवके स्वरूपका कथन है। प्रशस्त राग, अनुकम्पापरिणति और चित्तकी अकलुषता-यह तीन शुभ भाव द्रव्यपुण्यास्रवको