Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 328
________________ ३२४ नवपदार्थ - मोक्षमार्ग वर्णन इस तरह शुद्ध बुद्ध स्वभाववाले शुद्धात्मासे भिन्न जो त्यागने योग्य द्रव्य या भावरूप पुण्य तथां पाप हैं उनका व्याख्यान करते हुए एक सूत्रसे दूसरा स्थल समाप्त हुआ । मूर्तकर्मसमर्थनमेतत् । जम्हा कम्पस्प फलं विसमं फागोहिं भुंजदे णियदं । जीवेण सुहं दुक्खं तम्हा कम्माणि मुत्ताणि ।। १३३ ।। यस्मात्कर्मणः फलं विषयः स्पर्शैर्भुज्यते नियतम् । जीवेन सुखं दुःखं तस्मात्कर्माणि मूर्तानि ।। १३३ ।। यतो हि कर्मणां फलभूतः सुखदुःखहेतुविषयो मूर्तो मूर्तैरिन्द्रियैर्जीवेन नियतं भुज्यते, ततः कर्मणां मूर्तत्वमनुमीयते । यथा हि-मूर्तं कर्म, मूर्तसंबंधेनानुभूयमानमूर्तफलत्वादाखुविषंवदिति ।। १३३ ।। अन्वयार्थ – ( यस्मात् ) क्योंकि ( कर्मणः फलं ) कर्मका फल ( विषयः ) जो ( मूर्त ) विषय वे ( नियतम् ) नियमसे ( स्पर्शैः ) ( मूर्त ऐसी ) स्पर्शनादि इन्द्रियोंसे ( जीवेन ) जीव द्वारा ( सुखं दुखं) सुख रूपसे अथवा दुःखरूपसे ( भुज्यते ) भोगे जाते हैं, (तस्मात् ) इसलिये ( कर्माणि ) कर्म ( मूर्तानि ) मूर्त हैं । टीका - यह, मूर्त कर्मका समर्थन है । कर्मके फलभूत और सुख-दुःखके हेतुरूप जो विषय वे नियमसे मूर्त हैं और मूर्त इन्द्रियों द्वारा जीवसे भोगे जाते हैं, इसलिये कर्मों के मूर्तपनेका अनुमान किया जाता है । वह इस प्रकार - जिस प्रकार मूषक विष मूर्त है उसी प्रकार कर्म मूर्त है, क्योंकि ( मूषकविषके फल की भाँति ) मूर्तके सम्बन्ध द्वारा अनुभवमें आनेवाला ऐसा मूर्त उसका फल हैं ।। १३३ ।। सं०ता० अथ कर्मणां मूर्तत्वं व्यवस्थापयति, जह्मा – यस्मात्कारणात् कम्मस्स फलंउदयागतकर्मणः फलं । तत्कथंभूतं । विसयं -- मूर्तपंचेन्द्रियविषयरूपं, भुंजदे — भुज्यते, णियदं-निश्चितं । केन कर्तृभूतेन । जीवेन विषयातीतपरमात्मभावनोत्पन्नसुखामृतरसास्वादच्युतेन जीवेन । कैः कारणभूतैः । फासेहि स्पर्शनेन्द्रियादिरहितामूर्तशुद्धात्मतत्त्वविपरीतैः स्पर्शनादिमूर्तेन्द्रियैः । पुनरपि कथंभूतं तत्पंचेन्द्रियविषयरूपं कर्मफलं । सुहदुक्खं सुखदुःखं यद्यपि शुद्धनिश्चयेनामूर्त तथापि अशुद्धनिश्चयेन पारमार्थिकामूर्तपरमाह्लादैकलक्षणनिश्चयसुखाद्विपरीतत्वाद्धर्षविषादरूपं मूत सुखदुःखं । तह्या मुत्ताणि कम्माणि यस्मात्पूर्वोक्तप्रकारेण स्पर्शादिमूर्तपंचेन्द्रियरूपं मूर्तेन्द्रियैर्भुज्यते स्वयं च मूर्तं सुखदुःखरूपं कर्म कार्यं दृश्यते, तस्माकारणसदृशं कार्यं भवतीति मत्त्वा कार्यानुमानेन ज्ञायते मूर्तानि कर्माणि इति सूत्रार्थः ॥ १३३ ॥ एवं नैयायिकमताश्रितशिष्यसंबोधनार्थं नयविभागेन पुण्यपापद्वयस्य मूर्तत्वसमर्थनरूपेणैकसूत्रेण तृतीयस्थलं गतं ।

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