Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 321
________________ पंचास्तिकाय प्राभृत ३१७ कर्मोदयादात्मोपलब्धिलक्षणपंचमगतिसुखविलक्षणासु सुरनरनारकादिचतुर्गतिषु गमनं भवति ततश्च शरीररहितचिदानंदैकस्वभावात्मविपरीतो देहो भवति ततोतीन्द्रियामूर्तपरमात्मस्वरूपात्प्रतिपक्षभूतानीन्द्रियाणि समुत्पाते तेभ्योपि निर्विषयशुद्धात्मध्यानोत्थवीतरागपरमानंदैकस्वरूपसुखविपरीतं पंचेन्द्रियविषयसुखपरिणमनं भवति ततो रागादिदोषरहितानंतज्ञानादिगुणास्पदात्मतत्त्वविलक्षणों रागद्वेषो समुत्पद्येते । रागद्वेषपरिणामात्मकरणभूतात्पूर्ववत् पुनरपि कार्यभूतं कर्म भवतीति रागादिपरिणामाना कर्मणश्च योसौ परस्परं कार्यकारणाभावः स एव वक्ष्यमाणपुण्यादिपदार्थानां कारणमिति ज्ञात्वा पूर्वोक्तसंसारचक्रविनाशार्थमव्याबाधानंतसुखादिगुणानां चक्रभूते समूहरूपे निजात्मस्वरूपे ग़गादिविकल्पपरिहारेण भावना कर्तव्येति । किं च कथंचित्परिणामित्चे सत्यज्ञानी जीवो निर्विकारस्वसंवित्त्यभावे सति पापपदार्थस्यास्रवबंधपदार्थयोश्च कर्ता भवति कदाचिन्मदमिथ्यात्वोदयेन दृष्ट श्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदान धेन भाविकाले पापानुबन्धिपुण्यपदार्थस्यापि कर्ता भवति, यस्तु ज्ञानी जीवः स निर्विकारात्मतत्त्वविषये या रुचिस्तथा परिच्छित्तिर्निश्चलानुभूतिरित्यभेदरत्नत्रयपरिणामेन संवरनिर्जरामोक्षपदार्थानां कर्ता भवति, यदा पुन: पूवोक्तनिश्चयरत्नत्रये स्थातुं न शक्नोति तदा निर्दोषिपरमात्मस्वरूपार्हत्सिद्धानां तदाराधकाचार्योपाध्यायसाधूनां च निर्भरासाधारणभक्तिरूपं संसारविच्छित्तिकारणं परंपरया मुक्तिकारणं च तीर्थकरप्रकृत्यादिपुण्यानुबंधिविशिष्टपुण्यरूपमनीहितवृत्त्या निदानरहितपरिणामेन पुण्यपदार्थ च करोतीत्यनेन प्रकारेणाज्ञानी जीवः पापादिपदार्थचतुष्टयस्य कर्ता ज्ञानी तु संवरादिपदार्थत्रयस्येति भावार्थः ।।१२८। १२९ ।१३० ।। एवं नवपदार्थप्रतिपादकद्वितीयमहाधिकारमध्ये पुण्यादिसप्तपदार्था जीवपुद्गलसंयोगवियोगपरिणामेन निर्वृत्ता इति कथनमुख्यतया गाथात्रयेण चतुर्थांतराधिकारः समाप्तः । पीठिका-आगे कोई शंका करे कि जीव द्रव्यके साथ पुद्गल सर्व प्रकारसे तन्मयी हो रहा है इसलिये जीव पुद्गलकी संयोग रूप परिणतिमयी एक ही पदार्थ है, अथवा अन्य कोई शंका करे कि दोनों पदार्थ जीव और पुद्गल शुद्ध हैं तथा वे सर्वप्रकारसे परिणमन रहित हैं इसलिये पुण्य पाप आदि पदार्थ ही सिद्ध नहीं होते हैं, तब यह दोष होगा कि न जीवके बंध सिद्ध होगा न मोक्ष । इस दोषके दूर करनेके लिये यह बात जाननी चाहिये कि एकांतसे ये जीव और पुद्गल दोनों द्रव्य न परिणामी हैं और न अपरिणामी हैं इसलिये किसी अपेक्षासे ये दोनों परिणमनशील हैं। परिणमनशील मानते हुए ही आश्रय आदि सात पदार्थोकी सिद्धि होसकती है । तब फिर शिष्यने कहा-यद्यपि इन दोनोंके किसी अपेक्षासे परिणमनशील होते हुए पुण्य पाप आदि सात पदार्थोकी सिद्धि होजाती है तथापि इन सात पदार्थोसे कुछ प्रयोजन नहीं है | जीव, अजीवसे ही काम पूरा होजाता है क्योंकि वे सात पदार्थ इन जीव और पुद्गलकी ही पर्यायें हैं। इसका समाधान आचार्य करते हैं कि भव्य जीवोंको त्यागने योग्य व ग्रहण करने योग्य तत्त्वका स्वरूप दिखानेके लिये इन सात

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