Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

Previous | Next

Page 324
________________ ३२० नवपदार्थ-मोक्षमार्ग वर्णन ___पुण्यपापयोपत्रावस्वभावामान ओतत् : मोहो रागो दोसो चित्त- पसादो-य जस्स भावम्मि । विज्जदि तस्स सुहो वा असुहो वा होदि परिणामो ।।१३१।। ___ मोहो रागो द्वेषश्चित्तप्रसादः वा यस्य भावे । विद्यते तस्य शुभो वा अशुभो वा भवति परिणामः ।।१३१।। इह हि दर्शनमोहनीयविपाककलषपरिणामता मोहः । विचित्रचारित्रमोहनीयविपाकप्रत्यये प्रीत्यप्रीती रागद्वेषौ । तस्यैव मंदोदये विशुद्धपरिणामता चित्तप्रसादपरिणामः । एवमिमे यस्य भावे भवन्ति, तस्यावश्यं भवति शुभोऽशुभो वा परिणामः । तत्र यत्र प्रशस्तरागश्चित्तप्रसादश्च तत्र शुभः परिणामः, यत्र तु मोहद्वेषावप्रशस्तरागश्च तत्राऽशुभ इति ।। १३१।। __अब पुण्य-पापपदार्थका व्याख्यान है। अन्वयार्थ—( यस्य भावे ) जिसके भावमें ( मोहः ) मोह, ( रागः ) राग, ( द्वेषः ) द्वेष ( वा ) अथवा ( चित्तप्रसादः ) चित्तप्रसन्नता ( विद्यते ) है, ( तस्य ) उसके ( शुभः वा अशुभ: वा ) शुभ अथवा अशुभ ( परिणामः ) परिणाम ( भवति ) होते हैं। टीका-यह, पुण्य-पापके योग्य भावके स्वभावका ( स्वरूपका ) कथन है। यहाँ, दर्शनमोहनीयके विपाकसे जो कलुषित परिणाम वह मोह है, विचित्र ( अनेक प्रकारके ) चारित्रमोहनीयका विपाक जिसका आश्रय ( निमित्त ) है ऐसी प्रीति-अप्रीति वह रागद्वेष हैं, उसीके ( चारित्रमोहनीयके ही ) मंद उदयसे होनेवाले जो विशुद्ध परिणाम वह चित्तप्रसादपरिणाम ( मनकी निर्मलतारूप परिणाम ) है। इस प्रकार यह ( मोह, राग, द्वेष अथवा चित्तप्रसाद ) जिसके भावमें है उसके अवश्य शुभ अथवा अशुभ परिणाम है। उसमें जहाँ प्रशस्त राग तथा चित्तप्रसाद है वहाँ शुभ परिणाम है और जहाँ मोह, द्वेष तथा अप्रशस्त राग हैं वहाँ अशुभ परिणाम है ।।१३१॥ सं० ता०-अथ पुण्यपापाधिकार गाथाचतुष्टयं भवति तत्र गाथाचतुष्टयमध्ये प्रथम तावत्परमानंदैकस्वभावशुद्धात्मनः सूचनमुख्यत्वेन "मोहो व रागदोसा” इत्यादिगाथासूत्रमेकं । अथ शुद्धबुद्धकस्वभावशुद्धात्मनः सकाशादित्रस्य हेयस्वरूपस्य द्रव्यभावपुण्यपापद्वयस्य व्याख्यानमुख्यत्वेन “सुहपरिणामो" इत्यादि सूत्रमेकं, अथ नैयायिकमतनिराकरणार्थ पुण्यपापद्वयस्य मूर्तत्वसमर्थनरूपेण “जह्मा कम्मस्स फलं" इत्यादि सूत्रमेकं, अथ चिरंतनागंतुकयोर्मूर्तयोः कर्मणोः स्पृष्टत्वबद्धत्वस्थापनार्थ शुद्धत्वनिश्चयेनामूर्तस्यापि जीवस्यानादिबंधसंतानापेक्षया व्यवहारनयेन मूर्तत्वं मूर्तजीवेन सह मूर्तकर्मणो बंधप्रतिपादनार्थं च "मुत्तो पासदि” इत्यादि सूत्रमेकमिति गाथाचतुष्टयेन पंचमांतराधिकारे समुदायपातनिका । तद्यथा--

Loading...

Page Navigation
1 ... 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421