Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 305
________________ पंचास्तिकाय प्राभृत उक्तजीवप्रपंचोपसंहारोऽयम्। एदे जीव-णिकाया देह-प्पविचार-मस्सिदा भणिदा । देह-विहूणा सिद्धा भव्या संसारिणो अभव्वा य ।।१२०।। एते जीवनिकाया देहप्रतीचारमाश्रिताः भणिताः ।। देहविहीनाः सिद्धाः भव्याः संसारिणोऽभव्याश्च ।।१२०।। एते ह्युक्तप्रकाराः सर्वे संसारिणो देहप्रवीचाराः अदेहप्रवीचारा भगवंतः सिद्धाः शुद्धा जीवाः । तत्र देहप्रवीचारत्वादेकत्वेऽपि संसारिणो द्विप्रकाराः भव्या अभव्याश्च । ते शुद्धस्वरूपोपलम्भशक्तिसद्भावासद्भावाभ्यां पाच्यापाच्यमुद्वदभिधीयंत इति ।।१२०।। __ अन्वयार्थ ( एते जीवनिकाया: ) यह ( पूर्वोक्त ) जीवनिकाय ( देहप्रवीचारमाश्रिताः ) देहमे वर्तनेवाले अर्थात् देहसहित ( भणिताः ) कहे गये हैं, (देहविहीना: सिद्धा: ) देहरहित ऐसे सिद्ध हैं। ( संसारिण: ) संसारी ( भव्याः अभव्याः च ) भव्य और अभव्य ऐसे दो प्रकारके हैं। टीका-यह उक्त ( पहले कहे गये ) जीवविस्तारका उपसंहार है। जिनके प्रकार ( पहले ) कहे गये ऐसे यह समस्त संसारी देहमें वर्तनेवाले ( अर्थात् देहसहित ) हैं, देहमें न वर्तनेवाले ( अर्थात् देहरहित ) ऐसे सिद्ध भगवंत है-जो कि शुद्ध जीव हैं । वहाँ, देहमें वर्तनेकी अपेक्षासे संसारी जीवोंका एक प्रकार होने पर भी वे भव्य और अभव्य ऐसे दो प्रकारके हैं । ‘पाच्य' ( पकनेयोग्य ) और 'अपाच्य' ( न पकने योग्य ) मूंगकी भाँति, जिनमें स्वरूपकी उपलब्धिकी (प्राप्तिकी ) शक्तिका सद्भाव है उन्हें 'भव्य' और जिनमें शुद्ध स्वरूपकी उपलब्धिकी शक्तिका असद्भाव है उन्हें 'अभव्य' कहा जाता है ।। १२०॥ संता-अथ पूर्वोक्तजीवप्रपंचस्य संसारिमुक्तभेदेनोपसंहारव्याख्यानं करोति,-एते जीवनिकाया निश्चयेन शुद्धात्मस्वरूपाश्रिता अपि व्यवहारेण कर्मजनितदेहप्रवीचाराश्रिता भणिताः, देहे प्रवीचारो वर्तना देहप्रवीचारः । निश्चयेन केवलज्ञानदेहस्वरूपा अपि कर्मजनितदेहविहीना भवन्ति । ते के ? शुद्धात्मोपलब्धियुक्ताः सिद्धाः, संसारिणस्तु भव्या अभव्याश्चेति । तथाहिकेवलज्ञानादिगुण-व्यक्तिरूपा या शुद्धिस्तस्याः शक्तिर्भव्यत्वं भण्यते तद्विपरीतमभव्यत्वं । किंवत् ? पाच्यापाच्य-मुगवत् सुवर्णेतरपाषाणवद्वा शुद्धिशक्तियासौ सम्यक्त्वग्रहणकाले व्यक्तिमासादयति अशुद्धशक्तेर्यासौ व्यक्तिः सा चाशुद्धिरूपेण पूर्वमेव तिष्ठति तेन कारणेनानादिरित्यभिप्रायः ॥१२०॥ एवं गाथाचतुष्टयपर्यंतं पंचेन्द्रियव्याख्यानमुख्यत्वेन चतुर्थस्थलं गतं । अत्र पंचेन्द्रिया इत्युपलक्षणं तेन कारणेन गौणवृत्त्या "तिरिया बहुप्पयारा ।'' इति पूर्वोक्तगाथाखंडनैकेन्द्रियादिव्याख्यानमपि ज्ञातव्यं । उपलक्षणविषये दृष्टांतमाह-काकेभ्यो रक्षतां सर्पिरित्युक्ते मार्जारादिभ्योपि रक्षणीयमिति ।

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