Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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३०६
नवपदार्थ-मोक्षमार्ग वर्णन ___ जीवाजीवव्याख्योपसंहारोपक्षेपसूचनेयम् । एव-मभिगम्म जीवं अण्णेहिं वि पज्जएहिं बहुगेहिं । आभगच्छदु अज्जीवं णाणंतरि-देहि लिंगेहिं ।।१२३।।
एवमभिगम्य जीवमन्यैरपि पर्यायैर्बहुकैः ।।
अभिगच्छत्वजीवं ज्ञानांतरितैर्लिङ्गः ।। १२३।। एवमनया दिशा व्यवहारनयेन कर्मग्रन्थप्रतिपादितजीवगुणमार्गणास्थानादिप्रपञ्चितविचित्रविकल्परूपैः.निश्चयनयेन मोहरागद्वेषपरिणतिसंपादितविश्वरूपत्वात्कदाचिदशुद्धैः कदाचित्तदभावाच्छुद्धैश्चैतन्यविवर्तग्रन्थिरूपैर्बहुभिः पर्यायैः जीवमधिगच्छेत् । अधिगम्य चैवमचैतन्यस्वभावत्वात् ज्ञानादातरभूतैरितः प्रपंच्यमानैलिङ्गैर्जीवसंबद्धमसंबद्धं वा स्वतो भेदबुद्धिप्रसिद्ध्यर्थमजीवमधिगच्छेदिति ।। १२३।।
इति जीवपदार्थव्याख्यानं समाप्तम् ।
अन्वयार्थ—( एवम् ) इस प्रकार ( अन्यैः अपि बहुकैः पर्यायैः ) अन्य भी बहुत-सी पर्यायों द्वारा ( जीवम् अभिगम्य ) जीवको जानकर ( ज्ञानांतरितैः लिङ्गः ) ज्ञानसे अन्य ऐसे ( जड ) लिंगों द्वारा ( अजीवम् अभिगच्छतु) अजीवको जानो।।
टीका:-यह, जीव-व्याख्यानके उपसंहारकी और अजीव-व्याख्यानके प्रारम्भकी सूचना
इस प्रकार इस निर्देशके अनुसार, (१) व्यवहारनयसे कर्मग्रन्थमें प्रतिपादित जीवस्थानगुण-स्थान-मार्गणास्थान इत्यादि द्वारा प्रपंचित विचित्र भेदरूप बहु पर्यायों द्वारा, तथा (२) निश्चयनयसे मोहरागद्वेषपरिणतिसंप्राप्त विश्वरूपताके ( अनेकरूपताके ) कारण कदाचित् अशुद्ध (ऐसे) और कदाचित् उसके ( अशुद्धताके ) अभावके कारण शुद्ध ऐसी चैतन्यविवर्तग्रन्थिरूप बहु पर्यायों द्वारा, जीवको जानो। इस प्रकार जीवको जानकर, अचैतन्यस्वभाव के कारण, ज्ञानसे अर्थान्तरभूत ऐसे, यहाँसे ( आगे की गाथाओंमें ) कहे जानेवाले लिंगों द्वारा, जीवसम्बद्ध या जीव-असम्बद्ध अजीवको, अपनेसे भेदबुद्धिकी प्रसिद्धिके . लिये जानो ।। १२३॥
संता०-अथ गाथापूर्वार्धन जीवाधिकारव्याख्यानोपसंहारमुत्तरार्धेन चाजीवाधिकारप्रारंभ करोति, एवमभिगम्य ज्ञात्वा । कं? जीव अन्यैरपि पर्यायैर्बहुकैः पश्चादभिगच्छतु जानातु । कं । अजीवं ज्ञानांतरितैर्लिङ्गरिति । तद्यथा-एवं पूर्वोक्तप्रकारेण जीवपदार्थमधिगम्य । कैः । पर्यायैः । कथंभूतैः । पूर्वोक्तैः न केवलं पूर्वोक्तैः व्यवहारेण गुणस्थानजीवस्थानमार्गणास्थानभेदगतनामकर्मोदयादिजनितस्वकीयस्वकीयमनुष्यादिशरीरसंस्थानसंहननप्रभृत्तिबहिरंगाकारैनिश्चयेनाभ्यंतरै: रागद्वेषमोहरूपैरशुद्धस्तथैव च नीरागनिर्विकल्पचिदानंदैकस्वभावात्मपदार्थसंवित्तिसंजातपरमानंदसुस्थितसुखामृत
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