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पंचास्तिकाय प्राभृत
३०७ रसानुभवसमरसीभावपरिणतमनोरूपैः शुद्धैश्चान्यैरपि । पश्चात् किं करोतु । जानातु । कं । अजीवं पदार्थ । कैः । लिगः चिह्नः । किंविशिष्टैरने वक्ष्यमाणैर्ज्ञानांतरितत्वात् जडैश्चेति सूत्राभिप्राय: ।।१२३।। एवं जीवपदार्थव्याख्यानोपसंहार: तथैवाजीवव्याख्यानप्रारंभ इत्येकसूत्रेण षष्ठस्थलं गतं । ___इति पूर्वोक्तप्रकारेण “जीवाजीवा भावा' इत्यादि नवपदार्थानां नामकथनरूपेण स्वतंत्रगाथासूचमेकं, तदनंतरं जीवादिपदार्थव्याख्यानेन षट्स्थलै: पंचदशसूत्राणीति समुदायेन षोडशगाथाभिर्नवपदार्थप्रतिपादकद्वितीयमहाधिकारमध्ये "द्वितीयांतराधिकारः'' समाप्तः ।
हिन्दी ता०-उत्थानिका-आगे पहली आधी गाथासे जीवाधिकारके व्याख्यानको संकोच करते हैं तथा आगे आधी गाथासे अजीवाधिकार प्रारंभ करते हैं
अन्वय सहित सामान्यार्थ-(एवम् ) इस ही प्रकार ( अण्णेहिं वि ) दूसरी भी ( बहुगेहिं) बहुतसी ( पज्जएहिं) पर्यायोंके द्वारा ( जीवं) इस जीवको ( अभिगम्य) समझ करके (णाणंतरिदेहिं) ज्ञानसे भिन्न जडपना आदि ( लिंगेहिं) चिह्नोंसे ( अज्जीवं) अजीव तत्त्वको ( अभिगच्छदु) जानो।
विशेषार्थ-पूर्वमें जो एकेंद्रिय आदि भेद कहे हैं उनके द्वारा जीवके भेदोंको समझकर फिर व्यवहारनयसे जो संसारी जीवोंके गुणस्थान, जीवस्थान तथा मार्गणारूपसे भेद हैं व नामकर्मके उदय आदिसे उत्पन्न जो जीवों के अपने-अपने मनुष्य आदि शरीरोंके संस्थान व संहनन आदि बाहरी आकार रूप भेद हैं व अशुद्ध निश्चयनयसे जो राग, द्वेष, मोहरूप अशुद्ध भावोंकी अपेक्षा भेद हैं तथा शुद्धनिश्चयनयसे जीवोंमें वीतराग व विकल्प रहित चिदानन्दमयी एक स्वभावरूप आत्म-पदार्थके ज्ञानसे जो परमानन्दमें भलेप्रकार स्थिति रूप सुखामृत रसका अनुभव होता है व उस अनुभवसे समरसी भाव होता है इत्यादि शुद्ध परिणमन रूप भेद हैं इन सबके द्वारा जीवोंको समझो। उसके पीछे अजीव पदार्थोंको ज्ञानसे अतिरिक्त जडरूप गुणोंके द्वारा जानो जिनका स्वरूप आगे कहेंगे ऐसा सूत्रका अभिप्राय है ।।१२३॥
इस तरह जीव पदार्थके व्याख्यानका संकोच व अजीव पदार्थके व्याख्यानके प्रारम्पकी सूचनारूप एक सूत्रसे छठा स्थल पूर्ण हुआ। पहले जैसा कह चुके हैं "जीवजीवा भावा" इत्यादि नौ पदार्थोक नामको कहते हुए स्वतंत्र गाथा सूत्र एक है फिर जीव पदार्थका व्याख्यान करते हुए छः स्थलोंसे १५ सूत्रोंके द्वारा कथन है । इस तरह १६ गाथाओंमें नव पदार्थोको कहने वाले दूसरे महा अधिकारमें दूसरा अंतर अधिकार पूर्ण हुआ ।