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पंचास्तिकाय प्राभृत
३१३ पाँच रस, आठ स्पर्श, दो गंध तथा सात शब्द ( पोग्गलदव्यप्पभवा) पुरल द्रष्यसे उत्पन्न (वह) बहुत से ( गुणा) गुण (य) तथा ( पज्जया) अवस्थाविशेष ( होति ) हैं।
विशेषार्थ-इनमें वर्ण, रस, स्पर्श, गंध, तो पुद्गलद्रव्यके गुण हैं तथा संस्थान, संघातादि व शब्दके भेद या वर्णादिके भेद पुद्गल द्रव्यकी अनेक पर्याये हैं। ये सब पुद्गलके गुण और पर्याय निश्चयनयसे उस परमात्मस्वरूप आत्म पदार्थसे भिन्न हैं जो पुद्गलोंके विकारसे रहित है व केवलज्ञान आदि अनंतचतुष्टय सहित है ।।१२६।।
इस तरह पुद्गल आदि पाँच द्रव्य अजीव हैं इस कथनकी मुख्यतासे तीन गाथाओंके द्वारा पहला स्थल पूर्ण हुआ।
हिंदी ता०-उत्थानिका-शिष्यने प्रश्न किया कि जब संस्थान आदि जीवका स्वरूप नहीं है तब जीवका स्वरूप क्या है ? इसका उत्तर आचार्य कहते हैं
अन्वय सहित सामान्यार्थ--( जीवम् ) इस जीवको [अरसम् ] रसगुण रहित, [ अरूवम् ] वर्णगुण राहत, [अगंध ] गंध गुणरहित ( अयत्तं ) अप्रगट, ( असई) शब्द पर्याय रहित [चेदणागुणम् ] चेतनागुण सहित ( अलिंगग्गहणं) इन्द्रियादि चिह्नोंसे नहीं ग्रहणे योग्य तथा [ अणिट्ठिसंठाणं ] पुद्गलमई किसी विशेष आकारसे रहित ( जाण) जानो।
विशेषार्थ-यह जीव न तो रसगुण सहित पुगल द्रव्य है, न रस गुण मात्र है न रसको ग्रहण करनेवाली पुनलमई जिह्वा नामकी द्रव्यइंद्रियरूप है और न यह जिह्वा इंद्रियके द्वारा अपनेको व दूसरोंको रस ग्रहणके समान ग्रहण योग्य या जानने योग्य है-अर्थात् जैसे जिह्वासे रसको जान सकते हैं वैसे आत्माको नहीं जान सकते हैं और न यह आत्मा निश्चयनयसे द्रव्य इन्द्रियके द्वारा स्वयं रसको जानता है । भावार्थ-निश्चयनयसे आत्मा स्वयं बिना किसीकी सहायताके स्वपर द्रव्यको जाननेवाला है। द्रव्येन्द्रियके द्वारा परोक्ष ज्ञान है सो कर्म बन्धरूप अशुद्ध विभाव अवस्थाकी अपेक्षासे है। इसी ही प्रकार यह जीव रसके आस्वादको जाननेवाली क्षयोपशम रूप जो भाव इन्द्रिय है उस रूप भी निश्चयसे नहीं है तथा जैसे भावेन्द्रियके द्वारा अपनेको या दूसरेको रसका ज्ञान होता है वैसा आत्माका ज्ञान नहीं हो सकता है और न यह भावेन्द्रियके द्वारा ही निश्चयसे रसका जाननेवाला है तथा यह जीव सम्पूर्ण पदार्थोंको ग्रहण करनेवाले अखंड एकरूप प्रकाशमान जो केवलज्ञान उस स्वरूप है इसलिये निश्चयसे यह उस खंड ज्ञानरूप नहीं है जो ज्ञानरसको आस्वादन करनेवाली भावेन्द्रियके द्वारा कार्यरूप, रसका ज्ञानमात्र रूप उत्पन्न होता है, तैसे ही यह आत्मा अपनी ज्ञानशक्तिसे रसको जानता है परन्तु उस रस रूप ज्ञेयसे तन्मय नहीं होता है । इत्यादि