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नवपदार्थ - मोक्षमार्ग वर्णन हेतुओंसे यह जीव अरस है । इसी ही तरह यह जीव वर्ण, गंध, शब्द, स्पर्शसे रहित है। इनमें भी रसकी तरह सर्व व्याख्यान समझना योग्य है । तथा जैसे क्रोध, मान, माया, लोभके चतुष्टय, मिथ्यात्व व रागादिमें परिणमन करनेवाले तथा निर्मल आत्मस्वरूपकी प्राप्तिसे रहित जीवोंको झलकते हैं वैसे उनको यह परमात्मस्वरूप जीव नहीं झलकता है इसलिये यह अव्यक्त है । यह जीव निश्चयसे समचतुरस्त्र आदि छः शरीरके संस्थान या आकारोंसे रहित अखंड एक प्रकाशमान परमात्मरूप है इसलिये इसमें पुलकर्मक उदयसे प्राप्त समचतुरस्त्र आदि छः संस्थान नहीं हैं । इसलिये यह जीव संस्थानरहित है तथा जैसे अशुद्ध आत्मा यह अनुमान स्वरूप परोक्षज्ञानके द्वारा व्यवहारनयसे उसीतरह पहचान लिया जाता है जिस तरह धूमसे अग्निका अनुमान करते हैं। वैसे यह शुद्धात्मा यद्यपि रागादि विकल्पोंसे रहित स्वसंवेदन ज्ञानसे उत्पन्न परमानंदमई अनाकुलतामें भले प्रकार स्थित सच्चे सुखामृत जलसे पूर्ण कलशकी तरह भरे हुए परम योगियोंको प्रत्यक्ष है तथापि जो ऐसे योगी नहीं हैं उनको प्रत्यक्ष अनुभवमें नहीं आता है इसलिये यह जीव 'अलिंगग्रहण' है तथा यह जीव केवलज्ञानमई शुद्ध चेतना गुणसहित है इसलिये चेतनारूप है जैसा कि श्लोकमें कहा है- "जो सर्व चर अचर नानाप्रकार द्रव्योंको उनके गुणोंको, उनकी भूत, भविष्यत् व वर्तमान सर्व पर्यायोंको सर्व प्रकारसे सदा ही एकसाथ हरएक क्षण जानता रहता है वह सर्वज्ञ कहा जाता है । उस सर्वज्ञ, जिनेश्वर तथा महान् वीर भगवानको नमस्कार हो" हे शिष्य ! इस प्रकार श्लोक में कथित लक्षण के द्वारा केवलज्ञान नामक शुद्ध चेतना गुण से संयुक्त होनेके कारण जो चेतना गुणवाला है इन गुणोंसे विशिष्ट उस शुद्ध जीव पदार्थको जानो, यह भाव है ।। १२७ ।।
इस तरह भेद भावनाके लिये सर्व प्रकारसे ग्रहण करने योग्य जो शुद्ध जीव है उसका कथन करते हुए एक सूत्रसे दूसरा स्थल पूर्ण हुआ इस तरह चार गाथा तक दो स्थलोंमें नव पदार्थोको बतलानेवाले दूसरे महा अधिकारके मध्य में तीसरा अन्तर अधिकार पूर्ण हुआ ।
उक्त मूलपदार्थों । अथ संयोगपरिणामनिर्वृत्तेतरसप्तपदार्थानामुपोद्घातार्थं जीवपुद्गलकर्म चक्रमनुवर्ण्यते
दो मूलपदार्थ कह दिये गये। अब (उनके) संयोगपरिणामसे निष्पन्न होनेवाले अन्य सात पदार्थों के उपोद्घातके हेतु जीव पुद्गलकर्मक चक्रका वर्णन किया जाता है ।
जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मा कम्मादो होदि गदिसु गदी ।। १२८ ।।