________________
३१०
नवपदार्थ-मोक्षमार्ग वर्णन संता०—अथाकाशादीनामेवाचेतनत्वे साध्ये पुनरपि कारणं कथयामीत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा सूत्रमिदं प्रतिपादयति...---सुख:दुखज्ञातृता वा हितपरिकम च तवाहिरामारुत्व चय पदार्थस्य न विद्यते नित्यं तं श्रमणा ब्रुवंत्यजीवमिति । तदेव कथ्यते । अज्ञानिनां हितं त्रग्वनिता चंदनादि तत्कारणं दानपूजादि, अहितमहिविषकंटकादि । संज्ञानिना पुनरक्षयानंतसुखं तत्कारणभूतं निश्चयरत्नत्रयपरिणतं परमात्मद्रव्यं च हितमहितं पुनराकुलत्वोत्पादकं दुःखं तत्कारणभूतं मिथ्यात्वरागादिपरिणतमात्मद्रव्यं च एवं हिताहितादिपरीक्षारूपचैतन्यविशेषाणामभावादचेतना आकाशादयः पंचेति भावार्थः ।।१२५।।
हिन्दी ता० --उत्थानिका-आगे आकाश आदिके अचेतनपना सिद्ध करते हुए फिर भी उन अचेतनपनाका कारण बताएँगे ऐसा अभिप्राय मनमें धारणा करके सूत्र कहते हैं
अन्वय सहित सामान्यार्थ-( जस्स) जिस द्रव्यमें (सुहदुक्खजाणणा) सुख तथा दुःखका जानपना (वा) या (हिदपरियम्म) अपनी भलाईकी प्रवृत्ति (च) और ( अहिदभीरुत्तं ) अपने अहितसे भयपना ( णिच्चं) सदैव ( ण विज्जदि) नहीं पाया जाता है ( तं) उसको ( समणा) श्रमण या मुनिगण ( अज्जीव) अजीव (विंदति ) कहते हैं।
विशेषार्थ-अज्ञानी जीव फूलको माला, स्त्री, चंदन आदिको हितकारी मानते हैं तथा उसहीके कारण दान, पूजा आदि करते हैं तथा वे ही अज्ञानी जीव सर्प विष व कंटक आदिको अहितकारी मानते हैं परन्तु सम्यग्ज्ञानी जीव अक्षय तथा अनन्तसुखको और उसके कारण रूप निश्चय रत्नत्रयमई परमात्म तत्त्वको हितकारी जानते हैं तथा आकुलताके उत्पन्न करनेवाले दुःखको और उसके कारणरूप मिथ्यादर्शन व रागादि भावों में परिणमन करते हुए आत्मद्रव्यको अहितकारी जानते हैं । इसतरह हित तथा अहितकी परीक्षा रूप चैतन्यकी अवस्थाओंके नित्य अभाव होनेसे ये आकाश आदि पाँच द्रव्य अचेतन हैं यह भाव है ।।१२५।।
जीवपुद्गलयोः संयोगेऽपि भेदनिबंधनस्वरूपाख्यानमेतत् । संठाणा संघादा वण्ण-रस-प्फास-गंध-सदा य । पोग्गल-दव्व-प्पभवा होति गुणा पज्जया य बहु ।।१२६।। अरस-मरूव-मगंधं अव्यत्तं चेदणा-गुण- मसदं । जाण अलिंग-ग्गहणं जीव-मणिद्दिट्ठ-संठाणं ।।१२७।।
संस्थानानि संघाताः वर्णरसस्पर्शगंधशब्दाश्च । पुद्गलद्रव्यप्रभवा भवन्ति गुणाः पर्यायाश्च बहवः ।।१२६।।