Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचास्तिकाय प्राभृत पदार्थोक भीतर प्राप्त यथार्थ निश्चयरूप शुद्ध समयसार नामधारी व ग्रहण करने योग्य जो शुद्ध जीव पदार्थ है उससे विलक्षण जो अजीव पदार्थ है उसका व्याख्यान चार गाथाओंसे करते हैं। इन चार गाथाओंके मध्यमें अजीव तत्त्वके कहनेकी मुख्यतासे 'आयासकाल' इत्यादि पाट का गारा, तीन हैं। फिर भेदकी भावनाके लिये देहमें प्राप्त शुद्ध जीवका कथन करते हुए "अरसमरूवं" इत्यादि सूत्र एक है। इस तरह बार गाथाओंके दो स्थलोंके द्वारा अजीव तत्त्वके अधिकारमें व्याख्यान करते हुए समुदायपातनिका पूर्ण हुई।
हिन्दी ता०-उत्थानिका-आगे बताते हैं कि आकाश आदि द्रव्य अजीव क्यों हैं
अन्वय सहित सामान्यार्थ-( आगासकालपुग्गलधम्माधम्मेसु) आकाशद्रव्य, कालद्रव्य, पुद्गलद्रव्य, धर्मास्तिकाय द्रव्य, अधर्मास्तिकाय द्रव्य इन पाँच प्रकारके अजीव द्रव्योंमें ( जीवगुणा ) जीवोंके विशेष गुण ( णास्थि) नहीं हैं ( तेसिं) इनमें ( अचेदणत्तं ) अचेतनपना ( भणिदं ) कहा गया है ( जीवस्स ) जीवका गुण ( चेदणदा) चैतन्य है।
विशेषार्थ-एक समयमें तीन जगत कालके सर्व पदार्थोंको जानना यह जीवका चेतनपना स्वभाव है । यह स्वभाव इन अजीव द्रव्यों में नहीं है इसीसे ये सब अचेतन हैं, मात्र जीव ही चेतन है। यह इस गाथा का अभिप्राय है।।१२४ ।।
आकाशादीनामचेतनत्वसामान्ये पुनरनुमानमेतत् । सुह-दुक्ख-जाणणा वा हिद-परियम्मं च अहिद- भीरुत्तं । जस्स ण विज्जदि णिच्चं तं समणा विंति अज्जीवं ।।१२५ ।।
सुखदुःखज्ञानं वा हितपरिकर्म चाहितभीरुत्वम् ।
यस्य न विद्यते नित्यं तं श्रमणा विदंत्यजीवम् ।। १२५।। सुखदुःखज्ञानस्य हितपरिकर्मणोऽहितभीरुत्वस्य चेति चैतन्यविशेषाणां नित्यमनुपलब्धरविघमानचैतन्यसामान्या एवाकाशादयोऽजीवा इति ।।१२५।।
अन्वयार्थ—( सुखदुःखज्ञानं वा ) सुखदुःखका ज्ञान, ( हितपरिकर्म ) हितका उद्यम ( च ) और ( अहितभीरुत्त्वम् ) अहितका भय ( यस्य नित्यं न विद्यते ) यह जिसके कभी नहीं होते, ( तम् ) उसको [ श्रमणा: ] श्रमण ( अजीवम् विदंति ) अजीव कहते हैं।
टीका--यह पुनश्च यह आकाशादिका अचेतनत्वसामान्य निश्चित करनेके लिये अनुमान है।
आकाशादिको सुखदुःखका ज्ञान, हितका उद्यम और अहितका भय—इन चैतन्यविशेषोंको सदा अनुपलब्धि है, इसलिये ( ऐसा निश्चित होता है कि ) चैतन्यसामान्यके विद्यमान नहीं होने से आकाशादि अजीव हैं ।।१२५।।