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नवपदार्थ-मोक्षमार्ग वर्णन शुद्ध निश्चयनयसे जीव वह है जो इन्द्रियोंसे रहित अमूर्तिक केवलज्ञानमें अंतर्भूत अनंतसुख आदि गुणोंका समुदाय रूप है। यह तात्पर्य है । । १२१।।
अन्यासाधारणजीवकार्यख्यापनमेतत् ।। जाणदि पस्सदि सव्वं इच्छदि सुक्खं बिभेदि दुक्खादो। कुव्वदि हिम-महिदं वा भुंजदि जीवो फलं तेसिं ।। १२२।।
जानाति पश्यति सर्वमिच्छति सौख्यं विभेति दुःखात् ।।
करोति हितमाहितं . भुंक्ते जीवः फलं तयोः ।।१२२।। चैतन्यस्वभावत्वात्कर्तृस्थायाः क्रियायाः ज्ञप्तेदृशेश्च जीव एव कर्ता, न तत्संबन्धः पुद्गलो, यथाकाशादि । सुखाभिलाषक्रियायाः दुःखोद्वेगक्रियायाः स्वसंवेदितहिताहितनिर्वर्तनक्रियायाश्च चैतन्यविवर्तरूपसंकल्पप्रभवत्वात्स एव कर्ता, नान्यः । शुभाशुभकर्मफलभूताया इष्टानिष्टविषयोपभोगक्रियायाश्च सुखदुःखस्वरूपस्वपरिणामक्रियाया इव स एव कर्ता, नान्यः । एतेनासाधारणकार्यानुमेयत्वं पुद्गलव्यतिरिक्तस्यात्मनो धोतितमिति ।।१२२।।
अन्वयार्थ (जीव: ) जीव ( सर्व जानाति पश्यति ) सब जानता है और देखता है, ( सौख्यम् इच्छति ) सुखकी इच्छा करता है, ( दुःखात् बिभेति ) दुःखसे इरता है ( हितम् अहितम् करोति ) हित अहितको ( शुभ-अशुभ भावोंको ) करता है ( वा ) और ( तयोः फलं भुक्त ) उनके ( शुभ अशुभ भावके ) फलको भोगता है।
टीका-यह, अन्यसे असाधारण ऐसे जीवकायोंका कथन है।
चैतन्यस्वभावपनेके कारण, कर्तृस्थित ( कर्तामें रहनेवाली ) क्रियाका-ज्ञप्ति दृशिका-जीव की कर्ता है, उससे सम्बन्धित पुद्गल उसका कर्ता नहीं है, जिस प्रकार आकाशादि उसके नहीं हैं। चैतन्यके विवर्तरूप ( परिवर्तनरूप ) संकल्पकी उत्पत्ति ( जीवमें ) होनेके कारण, सुखको
अभिलाषारूप क्रियाका, दुःखके उद्वेगरूप क्रियाका तथा स्वसंवेदित हित-अहितको निष्पत्तिरूप क्रियाका जीव ही कर्ता है, अन्य नहीं है । शुभाशुभ कर्मके फलभूत इष्टानिष्टविषयोपभोगक्रियाका, सुख-दुःखस्वरूप स्वपरिणामक्रियाकी भाँति, जीव ही कर्ता है, अन्य नहीं।
इससे ऐसा समझाया कि ( उपरोक्त ) असाधारण कार्यों द्वारा पुद्गलसे भित्र ऐसा आत्मा अनुमेय ( अनुमान कर सकनेयोग्य ) है ।। १२२।।
सं० ता०-अथ ज्ञातृत्वादि कार्य जीवस्य संभवतीति निश्चिनोति,—जानाति पश्यति । किं । सर्वं वस्तु, इच्छति । किं ? सौख्यं । बिभेति कस्मात् । दुःखात् । करोति, किं । हितमहितं वा, भुंक्ते । स क; कर्ता । जीवः । किं ? फलं। कयोः । तयोहिताहितयोरिति । तथाहिं— पदार्थपरिच्छित्ति-रूपायाः क्रियाया ज्ञप्तेर्दशेश्च जीव एव कर्ता न तत्संबन्धः पुगल: कर्मनोकर्मरूप: