________________
३००
नवपदार्थ-मोक्षमार्ग वर्णन विभाव या अशुद्ध अवस्थाएँ हैं। अथवा जो कोई वादी ऐसा कहते हैं कि जगतमें एक जीवकी अन्य अन्य अवस्थाएँ नहीं होती हैं, देव मरके देव ही होता है, मनुष्य मरके मनुष्य ही होते हैं। उनके इस कथनका निषेध करनेके लिये कहते हैं
अन्वय सहित सामान्यार्थ-[ पुवणिबद्धे ] पूर्वमें बाँधे हुए [गदिणामे ] गतिनामा नाम कर्मके [च ] और [ आउसे ] आयु कर्मके [खीणे] क्षय होजाने पर [तेवि ] वे ही जीव [खलु] वास्तवमें [ सलेस्सवसा ] अपनी अपनी लेश्याके वशसे [ अण्णं ] अन्य [ गदिम् ] गतिको [य] और [ आउस्सं ] आयुको [ पापुण्णंति ] पाते हैं।
विशेषार्थ-ये संसारी जीव अपने-अपने परिणामोंके आधीन भिन्न-भिन्न गति व आयुको बाँधकर जन्मते रहते हैं। कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल ये छः लेश्याएँ होती हैं। इनका स्वरूप श्रीगोम्मटसारमें विस्तारसे कहा है जैसे-कृष्ण लेश्याका स्वरूप यह है "चंडोण मुचइ वेरं भंडनसीलो य धम्मदयरहियो । दुट्ठो ण य एदि वसं लक्खणमेयं तु किण्हस्स ।।५०९।।"
भावार्थ-जो प्रचंड तीव्र क्रोधों हां, वेर न छोड़े, बकनेका व युद्ध करनेका जिसका सहज स्वभाव हो, दयाधर्मसे रहित हो, दुष्ट हो, किसी गुरुजन आदिके वश न हो। ये लक्षण कृष्ण लेश्या वालोंके हैं।
यह अध्यात्म ग्रन्थ है इससे विशेष नहीं कहा है तथापि कुछ संक्षेपसे लिखते हैं"कषायोदयानुरंजिता योगप्रवृत्तिः लेश्या" यह लेश्याका लक्षण है। अर्थात् कषायोंके उदयसे रँगी हुई योगोंकी प्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं। यही शुभ अशुभ गतिनामा नामकर्म व आयुकर्मके बँधनेका बीज है इसलिये लेश्याका नाश करना योग्य है । जिसका उपाय यह है कि जब यह भावना की जाती है कि "मैं क्रोध, मान, माया, लोभ रूप चारों कषायोंके उदयसे भिन्न हूँ, तथा अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख तथा अनंत वीर्य इन चार अनंतचतुष्टयसे भिन्न नहीं हूँ ऐसा मैं परमात्म स्वभावधारी हूँ" तब कषायोंके उदयका नाश होता है, इस भावनाके लिये ही शुभ या अशुभ मन वचन कायके व्यापारका त्याग किया जाता है। इसी ही क्रमसे तीनों योगोंका अभाव हो जाना है तब कषायोंके उदयसे रँगी हुई योगोंकी प्रवृत्तिरूप लेश्याका भी विनाश हो जाता है। लेश्याके अभावसे गतिनामकर्म तथा आयुकर्मका भी अभाव हो जाता है तब अक्षय अनंत सुखादि गुणोंसे पूर्ण मोक्षका लाभ होता है यह सूत्रका अभिप्राय है ।।११९।।