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नवपदार्थ - मोक्षमार्ग वर्णन
द्भावनारहितैजींवैः सिद्धसदृशनिजशुद्धात्मभावनारहितैर्वा यदुपार्जितं चतुर्गतिनामकर्म तदुदयवशेन देवादिगतिषूत्पद्यंत इति सूत्रार्थः ।। ११८ ।।
हिंदी ता० - उत्थानिका- आगे एकेन्द्रिय आदिके भेदसे जिन जीवोंको कहा है उनके चार गति होती हैं ऐसा कहते हैं
अन्वय सहित सामान्यार्थ - ( देवा) देवगतिवाले जीव ( चउण्णिकाया ) चार समूह रूपसे चार प्रकार हैं । ( पुण) और ( मणुया) मनुष्य (कम्मभोगभूमीया ) कर्मभूमि और भोगभूमिवाले हैं । ( तिरिया) तिर्यंच गतिवाले ( बहुप्पयारा ) बहुत तरहके हैं (णेरड्या ) नारकी ( पुढविभेयगदा ) पृथ्वीके भेदके प्रमाण हैं ।
विशेषार्थ - देवोंके चार समूह हैं, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक । मनुष्योंके दो भेद हैं- एक वे जो भोगभूमिमें जन्मते हैं। दूसरे वे जो कर्मभूमिमं पैदा होते हैं । तिर्यंच बहु प्रकार हैं। पृथ्वी आदि पाँच एकेन्द्रिय तिर्यंच हैं । शम्बूक आदि दो इन्द्रिय, जूआदि तीन इन्द्रिय, डांस आदि चार इन्द्रिय ऐसे तीन प्रकार विकलत्रय तिर्यंच हैं । जलमें चलनेवाले, भूमिमें चलनेवाले तथा आकाशमें उड़नेवाले ऐसे द्विपद, चौपद आदि पंचेन्द्रिय तिर्यंच हैं । रत्न, शर्करा, बालुका, पंक, धूम, तम, महातम, ऐसी सात पृथिवी हैं जिनमें सात नरक हैं उनमें निवासी नारकी हैं। यहाँ सूत्रका भाव यह है कि जीव सिद्ध गतिकी भावनासे रहित हैं अथवा सिद्धके समान अपना शुद्ध आत्मा है इस भावनासे शून्य हैं उन जीवोंने नरकादि चार गति रूप नामकर्म बाँधा है उसके उदयके अधीन ये जीव देव आदि गतियोंमें पैदा होते हैं ।। ११८ । ।
गत्यायुर्नामोदयनिर्वृत्तत्वाद् देवत्वादीनामनात्मस्वभावत्वोद्योतनमेतत् ।
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खीणे पुव्व- णिबद्धे गदि णामे आउसे च ते वि खलु । पापुण्णंति य अण्णं गदि माउस्सं सलेस्स वसा ।। ११९ ।। क्षीणे पूर्वनिबद्धे गतिनाम्नि आयुषि च तेऽपि खलु ।
प्राप्नुवन्ति चान्यां गतिमायुष्कं स्वलेश्यावशात् ।। ११९ ।।
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क्षीयते हि क्रमेणारब्धफलो गतिनामविशेष आयुर्विशेषश्च जीवानाम् । एवमपि तेषां गत्यंतरस्यायुरंतरस्य च कषायानुरञ्जिता योगप्रवृत्तिर्लेश्या भवति बीजं ततस्तदुचितमेव गत्यंतर मायुरंतरञ्च ते प्राप्नुवन्ति । एवं क्षीणाक्षीणाभ्यामपि पुनः पुनर्नवीभूताभ्यां गतिनामायुः कर्मभ्यामनात्मस्वभावभूताभ्यामपि चिरमनुगम्यमानाः संसरत्यात्मानमचेतथमाना जीवा इति ।। ११९ । ।