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नवपदार्थ-मोक्षमार्ग वर्णन [जलचर- थलचर-खचरा ] जो जलचर, भूमिचर तथा आकाशगामी हैं [ बलिया ] ऐसे बलवान [ जीवा ] जीव [वण्णरसफ्फासगंधसद्दण्ह ] वर्ण, रस, स्पर्श, गन्ध और शब्दको समझनेगार [पंचेदिया, द्रिय होते हैं।
विशेषार्थ-वृत्तिकारने यह अर्थ किया है कि तिर्यंच पंचेन्द्रियों में कोई कोई बड़े बलवान होते हैं जैसे जलचरों में ग्राह, थलचरोंमें अष्टापद, खचरोंमें भेरुण्डपक्षी। जो बहिरात्मा जीव दोषरहित परमात्माके ध्यानसे उत्पन्न निर्विकार चिदानन्दमयी सुखसे विपरीतइन्द्रियसुख में आसक्त हैं वे पंचेन्द्रिय जाति नामका नामकर्म बाँध लेते हैं। उसके उदयको पाकर वीर्यांतराय कर्म तथा स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्णइन्द्रिय ज्ञानके आवरण कर्मके क्षयोपशमके लाभसे तथा नोइन्द्रिय जो मन उसके द्वारा ज्ञानको आवरण करनेवाले कर्मके उदय होने पर कोई जीव पंचेन्द्रिय मनरहित होते हैं तब वे शिक्षा, वार्तालाप व उपदेश ग्रहणकी शक्तिसे शून्य होते हैं तथा कोई नोइन्द्रिय ज्ञानके आवरणके क्षयोपशमके लाभसे भी मनसहित सैनी पंचेन्द्रिय होते हैं। इन पंचेन्द्रिय जीवोंमें नारकी, मनुष्य और देव तो सब सैनी ही होते हैं- पंचेन्द्रिय तिर्यंच सैनी और असैनी दो भेदरूप हैं तथा एकेन्द्रियसे ले चार इन्द्रिय तक तो सब असैनी ही होते हैं। यहाँ किसीने शंका की कि असैनी जन्तुओंके भी क्षयोपशम ज्ञानसे विचार होता है तथा क्षयोपशमसे उठनेवाले विकल्पको ही मन कहते हैं यह विकल्प जब असैनीको है तब उनको असैनी क्यों कहा है इसका समाधान वृत्तिकार कहते हैं कि असैनीको कार्य-कारणकी व्याप्तिका ज्ञान नहीं होता है-वे पहलेसे हरएक विषयमें यह नहीं विचार कर सकते हैं कि ऐसा करनेसे यह लाभ होगा व यह हानि होगी-असैनी जीव अपने-अपने स्वभावसे बिना हानि-लाभ विचारे काम करते हैं जैसेचीटी गन्धके विषयमें व आहार आदि संज्ञा रूपसे जो चतुराई रखती है वह उसके जातिस्वभावसे है, अन्य विषयोंमें उसका ज्ञान विचार नहीं कर सकता है । मनमें यह शक्ति है कि तीन जगत व तीन काल सम्बन्धी व्याप्तिज्ञान रूप केवलज्ञानमें जो परमात्मा आदि तत्त्व जाने गये हैं उनको परोक्ष रूपसे जान सकता है इसलिये वह केवलज्ञानके समान है, यह भावार्थ है ।।११७।। ___ इन्द्रियभेदेनोक्तानां जीवानां चतुर्गतिसंबंधत्वेनोपसंहारोऽयम् । .. देवा चउण्णि-काया मणुया पुण कम्म-भोग-भूमीया । तिरिया बहु-प्पयारा रइया पुढवि-भेयगदा ।।११८।।