Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पद्धता-पंचास्तिकायवर्णन टीका—जो मात्र अवकाशका ही हेतु है ऐसा जो आकाश उसमें गतिस्थितिहेतुत्व ( भी ) होने की शंका की जाये तो दोष आता है उसका यह कथन है ।
यदि आकाश, जिस प्रकार वह अवगाहवालोंको अवगाहहेतु है उसी प्रकार, गतिस्थितिवालोंको गति-स्थितिहेतु भी हो, तो सर्वोत्कृष्ट स्वाभाविक ऊर्ध्वगतिसे परिणत सिद्धभगवन्त, बहिरंग अंतरंग साधन रूप सामग्री होने पर भी, क्यों ( किस कारण ) उसमें-आकाशमें स्थिर हो ॥९२।।
संता०-अथाकाशं जीवादीनां यथावकाशं ददाति तथा यदि गतिस्थिती अपि ददाति तदा दोषं दर्शयति, आयासं-आकाशं कर्तृ, देहि जदि-ददाति यदि चेत् ? किं। अवगासंअवकाशमवगाहं । कथं, सह । काभ्यां । गमणठिदिकारणेहिं—गमनस्थितिकारणाभ्यां । तदा किं दूषणं । उढ्डं गदिप्पधाणा-निर्विकारविशिष्टचैतन्यप्रकाशमात्रेण कारणसमयसारभावनावलेन नारकतिर्यग्मनुष्यदेवगति-विनाशं कृत्वा पश्चात्स्वाभाविकोर्ध्वगतिस्वभावा: संत: । के ते । सिद्धास्वभावोपलब्धिसिद्धिरूपाः सिद्धा भगवंतः, चिटुंति किह-तिष्ठन्ति कथं । कुत्र? तत्थ-~-तत्र लोकाग्र इति । अत्र सूत्रे लोकादहि गेप्याकाशं तिष्ठति तत्र किं न गच्छंतीति भावार्थः ।।१२।।
हिंदी ता०-उत्थानिका-आगे दिखलाते हैं कि यदि कोई ऐसा माने कि जैसे आकाश, जीव आदि द्रव्योंके अवकाश देता है वैसा यह गमन और स्थिति भी करानमें सहायक होगा तो ऐसा मानना दोषसहित है:
अन्वयसहित सामान्यार्थ-( जदि) यदि ( आगासं) आकाश द्रव्य ( गमणट्ठिदिकारोहिं) गमन और स्थितिका हेतु होता हुआ ( अवगासं) अवकाश ( देदि) देता हो तो ( किध) किस तरह (सिद्धा) सिद्ध महाराज ( उटुंगदिप्पधाणा) जिनका स्वभाव ऊपरको जानेका है ( तत्थ ) यहाँ लोकके अग्रभागमें (चिट्ठन्ति ) ठहर सकते हैं।
विशेषार्थ-निर्विकार विशेष चैतन्यके प्रकाशरूय कारण समयसारमयी भावनाके बलसे जिन्होंने नारक, तिर्यच, मनुष्य और देव गतिका नाश करके स्वभावकी प्राप्तिरूप सिद्ध अवस्था पाई है ऐसे सिद्ध भगवान स्वभावसे ऊपरको गमन करते हैं। वे यदि आकाशके ही निमित्तकारणसे जावें तो वे अनंत आकाशमें जा सकते हैं, क्योंकि आकाश लोकसे बाहर भी है। परंतु वे बाहर नहीं जाते हैं कारण यही है कि वहाँ धर्म द्रव्य नहीं है। जहाँतक धर्मद्रव्य है वहींतक गमनमें सहकारीपना है ।।१२।। स्थितिपक्षोपन्यासोऽयम्,जह्मा उवरि-ट्ठाणं सिद्धाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं । तह्या गमण-ट्ठाणं आयासे जाण णस्थित्ति ।। ९३।।