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नवपदार्थ-मोक्षमार्ग वर्णन तदुदयाधीनत्वात् यद्यप्यग्निवातकायिकानां व्यवहारेण चलनमस्ति तथापि निश्चयेन स्थावरा इति भावार्थः ।। १११॥
हिंदी ता०-उत्थानिका-आगे व्यवहारसे अग्नि और वायुकायिक जीवोंको त्रस नामसे कह सकते हैं ऐसा दिखाते हैं__ अन्वय सहित सामान्यार्थ-( तेसु) इन पाँचोंमेंसे ( ति स्थावरतणुजोगा) तीन कायिक अर्थात् पृथ्वी, जल, वनस्पतिकाय स्थिर शरीर होनेके कारणसे स्थावर हैं (य) तथा ( अणिलाणलकाइया) वायुकाय और अग्निकाय घारी जीव ( तसा) त्रस जीव कहलाते हैं । ( एइंदिया जीवा) से एकेन्द्रिय जीव ( मणपरिणामविरहिदा) मनके परिणमनसे रहित असैनी हैं ऐसा ( णेया) जानने योग्य है। ___विशेषार्थ-स्थावर नामकर्म के उदयसे भिन्न तथा अनंतज्ञानादि गुण समूह से अभिन्न जो आत्मतत्त्व है उसके अनुभवसे शून्य जीवने जो स्थावर नामकर्म बाँधा है उसके उदय के आधीन होनेसे यद्यपि अग्नि और वायुकायिक जीवोंको व्यवहारनयसे चलनापना है तथापि निश्चयनयसे ये स्थावर ही हैं ।।१११।।* ___पृथिवीकाधिकादीन पंधानाधकेन्द्रियात्यनियमोऽप . एदे जीव-णिकाया पंचविधा पुढवि-काइया-दीया । मण-परिणाम-विरहिदा जीवा एगेंदिया भणिया ।।११२।।
एते जीवनिकायाः पंचविधाः पृथिवीकायिकाद्याः ।
मनःपरिणामविरहिता जीवा एकेन्द्रिया भणिताः ।। ११२।। __पृथिवीकायिकादयो हि जीवा: स्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशमात् शेषेन्द्रियावरणोदये नोइन्द्रियावरणोदये च सत्येकेन्द्रिया अमनसो भवंतीति ।।११२।।
अन्वयार्थ-[ एते ] इन ( पृथिवीकायिकाद्याः ) पृथ्वीकायिक आदि [ पञ्चविधा: ] पाँच प्रकारके [ जीवनिकायाः ] जीवनिकायोंको ( मनः परिणामविरहिताः ) मनपरिणाम रहित ( एकेन्द्रिया: जीवाः ) एकेन्द्रिय जीव [ भणिता:] ( सर्वज्ञने ) कहा है।
टीका-यह, पृथ्वीकायिक आदि पाँच [पंचविध] जीवोंके एकेन्द्रियपनेका नियम है।
पृथ्वीकायिक आदि जीव, स्पर्शनेन्द्रियके आवरणके क्षयोपशमके कारण तथा शेष इन्द्रियोंके आवरणका उदय तथा मनके आवरणका उदय होनसे, मनरहित एकेन्द्रिय हैं ।।११२॥ * वायुकायिक तथा अग्निकायिक जीवोंको चलनक्रिया देखकर व्यवहारसे अस कहा जाता है, निश्चयसे तो वे भी स्थावरनामानामकर्माधीनपनेके कारण ( यद्यपि उनके व्यवहारसे चलन है तथापि) स्थावर ही है।