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पंचास्तिकाय प्राभृत
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चाहिये । जब गर्भस्थ शरीर या अण्डे या मूर्छा प्राप्त प्राणी म्लानित होजाते अर्थात् बढ़ते नहीं या उनके शरीरकी चेष्टा बिगड़ जाती तब यह अनुमान होता है कि उनमें जीव नहीं रहा उसी तरह एकेन्द्रिय जीव जब ग्लानित या मर्दित हो जाते हैं तब वे जीवरहित अचित्त होजाते हैं । यहाँ यह भाव लेना योग्य है कि यह जीव निश्चयनयसे स्वाधीनता सहित अनंतज्ञान तथा अनंतसुख धारी है तथापि व्यवहारनबसे पराधीन इंद्रिय सुखमें आशक्त होकर जो कर्म बाँधता है उस कर्मके उदयसे अण्डज आदिके समान एकेन्द्रिय होकर आत्माको दुःखोंमें पटक देता है ।। ११३ ॥
मुख्यतासे चार गाथाओंके द्वारा दूसरा स्थल
इस तरह पाँच स्थावरोंके व्या
पूर्ण हुआ ।
द्वीन्द्रियप्रकारसूचनेयम् । संबुक्क - मादु-वाहा संखा सिप्पी अपादगा य किमी । जाणंति रसं फासं जे ते बेइंदिया जीवा शंबूकमातृवाहाः शङ्खाः शुक्तयोऽपादकाः च कृमयः ।
जानन्ति रसं स्पर्शं ये ते द्वीन्द्रियाः जीवाः ।। ११४ ।। एते स्पर्शनरसनेन्द्रियावरणक्षयोपशमात् शेषेन्द्रियावरणोदये नोइन्द्रियावरणोदये च सतिं स्पर्शरसयोः परिच्छेत्तारो द्वीन्द्रिया अमनसो भवतीति । । ११४ ।
।। ११४।।
अन्वयार्थ – [ शंबूकमातृवाहा: ] शंबूकघोघा, मातृवाह, [ शङ्खा: ] शंख, ( शुक्तय: ) सीप (च) और ( अपादकाः कृमयः ) पग रहित कृमि ( ये ) जो कि ( रसं स्पर्श ) रस और स्पर्शको ( जानन्ति ) जानते हैं (ते ) वे ( द्वीन्द्रियाः जीवाः ) द्वीन्द्रिय जीव हैं।
टीका- यह, द्वीन्द्रिय जीवोंके प्रकारकी सूचना है।
स्पर्शनेन्द्रिय और रसनेन्द्रियके आवरणके क्षयोपशमके कारण तथा शेष इन्द्रियोंके आवरणका स्पर्श और रसको जाननेवाले यह ( शंबूक आदि )
उदय तथा मनके आवरण का उदय होनेसे जीव मनरहित द्वीन्द्रिय जीव हैं ।। ११४ ||
सं०ता० - अथ द्वीन्द्रियभेदान् प्ररूपयति, शंबूकमातृवाहा शंखशुक्त्यपादगकृमयः कर्तारः स्पर्शरसद्वयं जानंत्येते जीवा यतस्ततो द्वीन्द्रिया भवतीति । तद्यथा शुद्धनयेन द्वीन्द्रियस्वरूपात्पृथग्भूतं केवलज्ञानदर्शनद्वयादपृथग्भूतं यत् शुद्धजीवास्तिकायस्वरूपं तद्भावनोत्थसदानंदैकलक्षणसुखरसास्वादरहितैः स्पर्शनरसनेन्द्रियादिविषयसुखरसास्वादसहितैर्जीवैर्यदुपार्जितं द्वीन्द्रियजातिनामकर्म तदुदयकाले वीर्यांतरायस्पर्शरसनेन्द्रियावरणक्षयोपशमलाभात् शेषेन्द्रियावरणोदये नोइन्द्रियावरणोदये च सति द्वीन्द्रिया अमनसो भवतीति सूत्रार्थ ॥ ११४ ॥