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पंचास्तिकाय प्राभृत
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गुण पाँच अस्तिकाय और छः ब्रव्यके ( पयत्यभंगं ) नव पदार्थमय भेदको ( मोक्खस्स i) जो मोक्षका मार्ग बताता है ( खोच्छामि ) आगे कहूँगा ।
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विशेषार्थ – इस गाथामें पहली आधी गाथासे ग्रंथकारने मंगलके लिये अपने इष्टदेवताको नमस्कार किया है। इससे यह भी सूचित किया है कि श्री महावीरस्वामीका कथन प्रमाण है क्योंकि उन्होंने इस रत्नत्रयमयी प्रवृत्तिमें आए हुए महा धर्मरूपी तीर्थका उपदेश किया था इसलिये वे अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीरस्वामी मोक्ष सुखरूपी अमृतरसके प्यासे भव्य जीवों के लिये, परम्परासे अनंत ज्ञान आदि गुणोंकी प्राप्तिरूप मोक्षके लिये सहकारी कारण हैं । इसके पीछे आधी गाथासे ग्रंथकर्ताने यह प्रतिज्ञा की है कि मैं नव पदार्थोका वर्णन करूँगा जो व्यवहार मोक्षमार्ग के अंग सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके विषय हैं। यह व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चय मोक्षमार्ग का परम्परासे कारण है। जहाँ शुद्ध आत्माकी रुचि, प्रतीति व निश्चल अनुभूति होती है उसे अभेद रत्नत्रय या निश्चय मोक्षमार्ग कहते हैं। इस ग्रन्थ में यद्यपि आगे चूलिकामें मोक्षमार्गका विशेष व्याख्यान है तथापि नव पदार्थोंका संक्षेप कशन बतानेके लिये यहाँ भी है क्योंकि ये नव पदार्थ व्यवहार मोक्षमार्गके विषय हैं, यह अभिप्राय है ।। १०५ ।।
मोक्षमार्गस्यैव तावत्सूचनेयम् ।
सम्मत्त - णाण- जुत्तं चारित्तं राग-दोस परिहीणं ।
मोक्खस्स हवदि मग्गो भव्वाणं लद्व- बुद्धीणं ।। १०६ ।।
सम्यक्त्वज्ञानयुक्तं चारित्रं रागद्वेषपरिहीणम् ।
मोक्षस्य भवति मार्गों भव्यानां लब्धबुद्धीनाम् ।। १०६ । ।
सम्यक्त्वज्ञानयुक्तमेव नासम्यक्त्वज्ञानयुक्तं, चारित्रमेव नाचारित्रं, रागद्वेषपरिहीणमेव न रागद्वेषापरिहीणम्, मोक्षस्यैव न भावतो बंधस्य, मार्ग एव नामार्गः, भव्यानामेव नाभव्यानां, लब्धबुद्धीनामेव नालब्धबुद्धीनां क्षीणकषायत्वे भवत्येव न कषायसहितत्वे भवतीत्यष्टधा नियमोऽत्र द्रष्टव्यः । । १०६ ।।
अन्वयार्थ--( सम्यक्त्वज्ञानयुक्तं ) सम्यक्त्व और ज्ञानसे संयुक्त ( रागद्वेषपरिहीणम् ) राग-द्वेषसे रहित ( चारित्रं ) चारित्र ( लब्धबुद्धीनाम् ) लब्धबुद्धि ( भेद विज्ञानी ) ( भव्यानां ) भव्यजीवोंको ( मोक्षस्य मार्गः ) मोक्षका मार्ग (भवति) होता है ।
टीका – प्रथम, मोक्षमार्गकी यह सूचना है ।
सम्यक्त्व और ज्ञानसे ही युक्त, , - न कि असम्यक्त्व और अज्ञानसे युक्त, चारित्र ही न कि