Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 280
________________ नवपदार्थ-मोक्षमार्ग वर्णन अचारित्र, रागद्वेष रहित हो-न कि रागद्वेष सहित, भावसे मोक्षका ही-न बंधका, मार्ग ही-न कि अमार्ग, भव्यों को ही-न कि अभव्यों को, लब्धबुद्धियोंको ( ज्ञानियों को ) ही-न कि अलब्धबुद्धियोंको, क्षीणकषायपनेमें ही होता है-न कि कषायसहितपनेमें । इस प्रकार आठ प्रकारसे नियम यहाँ देखना ( समझना ) ॥१०६।। संता-अथ प्रथमतस्तावन्मोक्षमार्गस्य संक्षेपसूचनां करोति__ सम्मत्तणाणजुत्तं—सम्यक्त्वज्ञानयुक्तमेव न च सम्यक्त्वज्ञानरहितं, चारित-चारित्रमेव, न चाचारित्रं । रागदोसपरिहीणं-रागद्वेषपरिहीनमेव, न च रागद्वेषसहितं । मोक्खस्स हवदि-स्वात्मोपलब्धिरूपस्य मोक्षस्यैव भवति, न च शुद्धात्मानुभूतिप्रच्छादकबंधस्युमग्गो-अनंतज्ञानादिगुणामौल्यरत्नपूर्णस्य मोक्षनगरस्य मार्ग एव नैवामार्ग: । भल्वाणं-शुद्धात्मस्वभावरूपव्यक्तियोग्यतासहितानां भव्यानामेव, न च शुद्धात्मस्वरूपव्यक्तियोग्यतारहितानामभव्यानां । लद्धबुद्धीणं-लब्धनिर्विकारस्वसंवेदनज्ञानरूपबुद्धीनामेव न च मिथ्यान्वगगादिपरिणतिरूपविष्टयानंतानमंतेदन बुद्धिसहितानां, क्षीणकषायशुद्धात्मोपलंभे सत्येव भवति न च सकषायाशुद्धात्मोपलंभे भवतीत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यामष्टविधनियमोत्र द्रष्टव्यः । अन्वयव्यतिरेकस्वरूपं कथ्यते । तथाहि-सति संभवोऽन्वयलक्षणं, असत्यसंभवो व्यतिरेकलक्षणं, तत्रोदाहरणं-निश्चयव्यवहारमोक्षकारणे सति मोक्षकार्यं संभवतीति विधिरूपोऽन्वय उच्यते, तत्कारणाभावे मोक्षकार्यं न संभवतीति निषेधरूपो व्यतिरेक इति । तदेव द्रढयति । यस्मिन्नग्न्यादिकारणे सति यद्भूमादिकार्य भवति तदभावे न भवतीति तद्भूमादिकं तस्य कार्यभितरदग्न्यादिकं कारणमिति कार्यकारणनियम इत्यभिप्रायः ।।१०६|| हिंदी ता०-उत्थानिका-आगे प्रथम ही मोक्षमार्गको सूचना संक्षेपमें करते हैं अन्वय सहित सामान्यार्थ-( लब्धबुद्धीणं) आत्मज्ञान प्राप्त ( भव्वाणां ) भव्य जीवों के लिये ( सम्मत्तणाणजुत्तं ) सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सहित तथा ( रागदोसपरिहीणं) राग द्वेष रहित ( चारित्तं) चारित्र ( मोक्खस्स मग्गो) मोक्षका मार्ग ( हवदि) होता है । विशेषार्थ-शद्ध आत्माके अनुभवको रोकनेवाला बंध है जब कि अपने आत्माकी प्राप्ति रूप मोक्ष है। मोक्षरूपी नगर अनंतज्ञान आदि गुणरूपी अमूल्य रत्नोंसे भरा है। उसी नगरका मार्ग सम्यक्त्व और सम्यग्ज्ञान सहित वीतराग चारित्र है इस मार्गपर वे भव्य जीव ही चल सकते हैं जिनको शुद्ध आत्मस्वरूपकी प्रगटताकी योग्यता है तथा जिनको विकार रहित स्वसंवेदन ज्ञानरूप बुद्धि प्राप्त हो चुकी है । यह मोक्षमार्ग उन अभव्योंको नहीं मिलता जिनमें शुद्ध आत्माके स्वभावकी प्रगटताकी योग्यता नहीं है तथा उन भठ्योंको भी नहीं मिलता जिनमें मिथ्या श्रद्धान सहित राग आदि परिणतिरूप विषयानंदमयी स्वसंवेदनरूप कुबुद्धि पाई जाती है। जिनके कषायोंका नाश हो जानेपर शुद्ध आत्माकी प्राप्ति हो जाती

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