________________
पंचास्तिकाय प्राभृत
२८५
निर्वृताश्चैव । चेदणप्पा दुविहा । चेतनात्मका उभयेपि कर्मचेतनाकर्मफलचेतनात्मका: संसारिणः शुद्धचेतनात्मका मुक्ता इति, उबओगलक्खणा वि य उपयोगलक्षणा अपि च । आत्मनश्चैतन्यानुविधायिपरिणाम उपयोगः केवलज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणा मुक्ताः । क्षायोपशमिका अशुद्धोपयोगयुक्ताः संसारिणः । देहा- देहप्पवीचारा - देहा देहप्रवीचाराः अदेहात्मतत्त्वविपरीतदेहसहिता देहप्रवीचाराः, अदेहाः सिद्धा इति सूत्रार्थः ॥ १०९ ॥ एवं जीवाधिकारसूचनगाथारूपेण प्रथमस्थलं गतं ।
आगेके कथनकी सूचना- आगे पंद्रह गाथातक जीव पदार्थका अधिकार कहा जाता है - इन पंद्रह गाथाओंके मध्यमें पहले जीव पदार्थके अधिकारकी सूचनाकी मुख्यतासे "जीवा संसारत्या" इत्यादि गाथासूत्र एक है, फिर पृथ्वीकाय आदि स्थावर एकेद्रिय पाँच होते हैं इसकी मुख्यतासे "पुढवी थ' इत्यादि पाठक्रमसे गाथाएँ चार हैं। फिर विकलेंद्रिय तीनके व्याख्यानकी मुख्यतासे 'संबुक्क' इत्यादि पाठके क्रमसे गाथाएँ तीन हैं। फिर नारकी, तिर्यंच, मनुष्य व देवगति सम्बन्धी चार प्रकार पंचेन्द्रियोंका कथन करते हुए "सुरणार" इत्यादि से गाथाएँ आर हैं। फिर भेद भावनाकी मुख्यतासे हित अहितका कर्तापना और भोक्तापना कहनेकी मुख्यतासे 'छा हि इन्दियाणि" इत्यादि गाथाएँ दो हैं पश्चात् जीव पदार्थके संकोच कथनकी मुख्यतासे तथा जीव पदार्थके प्रारंभकी मुख्यतासे " एवमधिगम्म' इत्यादि सूत्र एक है । इस तरह पंद्रह गाथाओंसे छः स्थलोंके द्वारा दूसरे अन्तर अधिकारमें समुदायपातनिका कही ।
हिंदी ता० - उत्थानिका- आगे जीवका स्वरूप कहते हैं
अन्वयसहित सामान्यार्थ - ( जीवा ) जीव समुदाय ( दुविहा) दो प्रकारका है ( संसारत्या ) संसारमें रहनेवाले संसारी ( णिव्यादा ) मुक्तिको प्राप्त सिद्ध ( वेदणप्पगा ) ये चैतन्यमयी हैं, ( उवओगलक्खणा ) उपयोग रूप लक्षणके धारी भी हैं ( ब ) और ( देहादेहप्पवीचारा ) शरीर भोगी तथा शरीर भोग रहित हैं। जो संसारी हैं वे शरीरसहित हैं तथा जो सिद्ध हैं वे शरीर रहित हैं ।
विशेषार्थ - वृत्तिकारने चेतनात्मकका द्विविध विशेषण करके यह अर्थ किया है कि ये संसारी जीव अशुद्ध चेतनामयी तथा मुक्त जीव शुद्ध चेतनामयी हैं । अशुद्ध चेतनाके दो भेद हैं— कर्मचेतना और कर्मफलचेतना । रागद्वेष पूर्वक कार्य करनेका अनुभव सो कर्मचेतना है। तथा सुखी और दुःखी होने रूप अनुभव सो कर्मफलचेतना है । आत्माके शुद्ध ज्ञानानंदमयी स्वभावका अनुभव सो शुद्ध ज्ञानचेतना है। चैतन्य गुणके भीतर होने वाली