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पंचास्तिकाय प्राभृत
२८३ पावं च ) तथा पुण्य और पाप (ब) और (तेसिं) उनका ( आस्त्रवं) आस्रव, (य) तथा ( संवरणिज्जरबंधो मोक्खो ) संवर, निर्जरा, बंध व मोक्ष ( ते अठ्ठा) ये पदार्थ ( हवंति) होते हैं।
विशेषार्थ-यहाँ इन नौ पदार्थों का कुछ स्वरूप कहते हैं- देखना जानना जिसका स्वभाव है वह जीव पदार्थ है । उससे भिन्न लक्षणवाला पुल आदिके पांच भेद रूप अजीव पदार्थ है । दान, पूजा आदि छः आवश्यकोंको आदि लेकर जीवका शुभ भाव सो भाव पुण्य है- इस भाव पुण्यके निमित्तसे उत्पन्न जो सातावेदनीय आदि शुभ प्रकृतिरूप पुद्गल परमाणुओंका पिंड सो द्रव्य पुण्य है। मिथ्यादर्शन व राग आदिरूप औषका अशुभपरिणाम सो माग धार है-उसके निमित्तसे प्राप्त जो असातावेदनीय आदि अशुभ प्रकृतिरूप पुद्गलका पिंड सो द्रव्य पाप है। आस्रवरहित शुद्ध आत्मा पदार्थसे विपरीत जो रागद्वेष मोह रूप जीवका परिणाम सो भाव आस्रव है, इस भावके निमित्तसे कर्म-वर्गणाके योग्य पुगलोंका योगोंके द्वारा आना सो द्रव्यास्त्रव है। कर्मोके रोकने में समर्थ जो विकल्परहित आत्माकी प्राप्तिरूप परिणाम सो भाव संवर है। इस भावके निमित्तसे नवीन द्रव्यके- कर्मोके आनेका रुकना सो द्रव्यसंवर है। कर्मकी शक्तिको मिटानेको समर्थ जो बारह प्रकार तपोंसे बढ़ता हुआ शुद्धोपयोग सो संवरपूर्वक भाव निर्जरा है। इस शुद्धोपयोगके द्वारा रस रहित होकर पुराने बँधे हुए कर्मों का एकदेश झड़ जाना सो द्रव्य निर्जरा है। प्रकृति आदि बंधसे शून्य परमात्मा पदार्थसे प्रतिकूल जो मिथ्यादर्शन व राग आदि रूप चिकना भाव सो भावबंध है। इस भावबंधके निमित्तसे जैसे तेल लगे हुए शरीरमें घूला जम जाता है वैसे जीव और कर्मके प्रदेशोंका एक दूसरेमें मिल जाना सो द्रव्यबंध है । कर्मोको मूलसे हटाने में समर्थ जो शुद्ध आत्माकी प्राप्तिरूप जीवका परिणाम सो भावमोक्ष है । इस भावमोक्षके निमित्तसे जीव और कर्मके प्रदेशोंका सम्पूर्णपने भिन्न-भिन्न हो जाना सो द्रव्यमोक्ष है। यह सूत्रका अर्थ है ।।१०८।।
इस तरह जीव अजीव आदि नव पदार्थोके नव अधिकार इस ग्रंथमें हैं इस सूचनाकी मुख्यतासे एक गाथा सूत्र समाप्त हुआ ।
अथ जीवपदार्थानां व्याख्यानं प्रपंचयति ।