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पंचास्तिकाय प्राभृत
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नवपदार्थविषयरूपस्य व्यवहारमोक्षमार्गस्यैव मुख्यत्वमिति भावार्थः || १०७ ।। एवं नवपदार्थप्रतिपादकद्वितीयमहाधिकारे मध्ये व्यवहारमोक्षमार्गकथन मुख्यतया गाथाचतुष्टयेन प्रथमोतराधिकारः समाप्तः ।
हिंदी ता० - उत्थानिका आगे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रमयी रत्नत्रयका व्याख्यान करते
अन्वयसहित सामान्यार्थ - ( भावाणं ) पदार्थोंका ( सहहणं ) श्रद्धान करना ( सम्पत्तं ) सम्यक्त्व है | ( तेसिं ) उनका ( अधिगमः ) जानपना ( णाणं) सम्यग्ज्ञान है ( विरूढमग्गाणं ) मोक्षमार्ग में आरूढ जीवोंका (विसयेसु ) इंद्रियोंके विषयोंमें ( समभावः ) समताभाव रहना ( चारितं ) सम्यक्चारित्र है ।
विशेषार्थ- पाँच अस्तिकाय छः द्रव्यके भेदसे जीव और अजीव दो पदार्थ हैं। इनमेंसे जीव और पुलके संयोग भाव से आस्रव आदि अन्य सात पदार्थ उत्पन्न हुए हैंजैसा इनका लक्षण कहा गया है वैसा इन नव जीवादि पदार्थोंका जो व्यवहार सम्यग्दर्शनके विषयभूत है, मिध्यात्वके उदयसे जो विपरीत अभिप्राय होता है उसको छोड़कर श्रद्धान करना सो व्यवहार सम्यग्दर्शन है । यह सम्यग्दर्शन शुद्ध जीव ही ग्रहण करने योग्य है इस रुचिरूप निश्चय सम्यग्दर्शनका और अल्पज्ञ अवस्थामें आत्मा सम्बन्धी स्वसंवेदन ज्ञानका परंपरासे बीज है और यह स्वसंवेदन ज्ञान है सो अवश्य केवलज्ञानका बीज है | इनहीं नव पदार्थोंका संशय रहित यथार्थ जानना सो सम्यग्ज्ञान है तथा इस सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके बलसे सर्व अन्य मार्गोंसे अलग होकर विशेषपने इस मोक्षमार्गपर आरूढ होनेवालोंका इंद्रिय और मनके भीतर आए हुए सुख या दुःखकी उत्पत्तिके कारण शुभ या अशुभ पदार्थों में समता या वीतराग भावना रखना सो सम्यक्चारित्र है। यह व्यवहारचारित्र बाहरी साधन है तथा यही वीतराग चारित्रको भावनासे उत्पन्न जो परमात्म स्वभावमें तृप्ति रूप निश्चयसुख है उसका बीज है और वह निश्चयसुख अक्षय और अनन्तसुखका बीज है । यहाँ पर साध्य साधक भाव को बतलाने के लिये निश्चय और व्यवहार दोनों का कथन किया गया । किन्तु नव पदार्थ के विषय रूप व्यवहार मोक्ष मार्ग के ही मुख्यपना है ऐसा भावार्थ है ।। १०७ ।।
इस तरह नव पदार्थके प्रतिपादक दूसरे महा अधिकार में व्यवहार मोक्षमार्गके कथनकी मुख्यतासे चार गाथाओं के द्वारा पहला अंतर अधिकार समाप्त हुआ ।
अथ व्यवहारसम्यग्दर्शनं कथ्यते, -