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पंचास्तिकाय प्राभृत नव पदार्थ मोक्षमार्ग प्ररूपक
दूला अधिकार द्रव्यस्वरूपप्रतिपादनेन शुद्धं बुधानामिह तत्त्वमुक्तम् ।
पदार्थभंगेन कृतावतारं प्रकीर्त्यते संप्रति वर्त्म तस्य ।।७।। ( प्रथम, श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव पहले श्रुतस्कन्धमें क्या कहा गया है और दूसरे श्रुतस्वन्धमें क्या कहा जायेगा वह श्लोकद्वारा अति संक्षेपमें दर्शाते हैं:-)
(श्लोकार्थ:-----) यहां ( इस शास्त्रके प्रथम श्रुतस्कन्धमें ) द्रव्यस्वरूपके प्रतिपादन द्वारा बुध पुरुषों को ( बुद्धिमान जीवोंको ) शुद्धतत्त्व ( शुद्धात्म तत्त्व ) का उपदेश दिया गया । अब पदार्थभेद द्वारा उपोद्घात करके ( नव पदार्थरूप भेद द्वारा प्रारम्भ करके ) उसके मार्गका ( शुद्धात्मतत्त्वके मार्ग का अर्थात् मोक्ष मार्गका ) वर्णन किया जाता है। (७)
आप्तस्तुतिपुरस्सरा प्रतिज्ञेयम् । अभि-वंदिऊण सिरसा अपुण-भव-कारणं महावीरं । तेसिं पयस्थ-भंगं मग्गं मोक्खस्स वोच्छामि ।।१०५।।
अभिबंद्य शिरसा अपुनर्भवकारणं महावीरम् ।
तेषां पदार्थभंगं मार्ग मोक्षस्य वक्ष्यामि ।। १०५।। अमुना हि प्रवर्तमानमहाधर्मतीर्थस्य मूलकर्तृत्वेनापुनर्भवकारणस्य भगवतः परमभट्टारकमहादेवाधिदेवश्रीवर्द्धमानस्वामिनः सिद्धिनिबंधनभूतां भावस्तुतिमासूत्र्य, कालकलितपंचास्तिकायानां पदार्थविकल्पो मोक्षस्य मार्गश्च वक्तव्यत्वेन प्रतिज्ञात इति ।।१०५।।
अन्वयार्थ—( अपुनर्भवकारणं ) अपुनर्भवके ( मोक्षके ) कारणभूत ( महावीरम ) श्री महावीरको ( शिरसा अभिवेद्य ) शिरसे वंदन करके, ( तेषां पदार्थभङ्ग ) उनषद्रव्योंके ( नव ) पदार्थरूपभेद तथा ( मोक्षस्य मार्ग ) मोक्षका मार्ग ( वक्ष्यामि ) कहूँगा।
टीका—यह, आप्तकी स्तुतिपूर्वक प्रतिज्ञा है।
प्रवर्तमान महाधर्मतीर्थके मूल कर्ता जो अपुनर्भवके ( मोक्षके ) कारण हैं ऐसे भगवान, परमभट्टारक, महादेवाधिदेव श्री वर्द्धमानस्वामीकी, सिद्धत्वके निमित्तभूत भावस्तुति करके, कालसहित पंचास्तिकायका पदार्थभेद ( अर्थात् छह द्रव्योंका नव पदार्थरूप मेद ) तथा मोक्षका मार्ग कहनेकी इस गाथासूत्र में प्रतिज्ञा की गई है ।। १०५।।
सं० ता०-इत ऊर्ध्व "अभिवंदिऊण सिरसा' इति इमां गाथामादिं कृत्वा पाठक्रमेण पंचाशद्गाथापर्यंत टीकाभिप्रायेणाष्टाधिकचत्वारिंशद्गाथापर्यंतं वा जीवादिनवपदार्थप्रतिपादको द्वितीयमहाधिकारः प्रारभ्यते।