Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 275
________________ पंचास्तिकाय प्रामृत २७१ मोहका ) क्षय होता है, इसलिये स्वरूपके परिचयके कारण ज्ञानज्योति प्रगट होती है, इसलिये रागद्वेष प्रशमित होते हैं-निवृत्त होते हैं, इसलिये उत्तर और पूर्व ( बादका और पहलेका ) बंध विनष्ट होता है, इसलिये पुन: बंध होनेके हेतुत्वका अभाव होनेसे स्वरूपसे सदैव तपता हैप्रतापवंत वर्तता है ।।१०४॥ इस प्रकार समयव्याख्या नामक टीका में षइद्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन नामका प्रथम श्रुत स्कन्ध समाप्त हुआ। सं० ता०-अथ दुःखमोक्षकारणस्य क्रमं कथयति, मुणिदूण—मत्वा विशिष्ट स्वसंवेदनज्ञानेन ज्ञात्वा तावत् । कं । एदं-इमं प्रत्यक्षीभूतं नित्यानंदैकशुद्धजीवास्तिकायलक्षणं अत्यं-अर्थं विशिष्ट पदार्थ, तमणु-तं शुद्धजीवास्तिकायलक्षणमर्थ अनुलक्षणीकृत्य समाश्रित्य । गमणुज्जुदो-गमनोद्यतः तन्मयत्वेन परिणमनोद्यतः, णिहदमोहो-शुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपनिश्चयसम्यक्त्वप्रतिबंधकदर्शनमोहाभावात्तदनंतरं निहतमोहो नष्टदर्शनमोह: । पसमिइदरागदोसो निश्चलात्मपरिणतिरूपनिश्चयचारित्रप्रतिकूलचारित्रमोहोदयाभावात्तदनंतरं प्रशमितरागद्वेषः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण स्वपरयोर्भेदज्ञाने सति शुद्धात्भरुचिरूपे सम्यक्त्वे तथैव शुद्धात्मस्थितिरूपे चारित्रे च सति पश्चात् हवदि-भवति । कथंभूतः । हदपरावरो-हतपरापर: । अत्र परमानंदज्ञानादिगुणाधारत्वात्परशब्देन मोक्षो भण्यते परशब्दवाच्यान्मोक्षादपरो भिन्नः परापरः संसार इति हेतोः विनाशित: परापरो येन स भवति हतपरापरो नष्टसंसारः। स कः। जीवो-भव्यजीवः ।।१०४।। इति पंचास्तिकायपरिज्ञानफलप्रतिपादनरूपेण षष्ठस्थले गाथाद्वयं गतं । एवं प्रथममहाधिकारमध्ये गाथाष्टकेन षड्भिः स्थलैचूलिकासंज्ञोष्टमोऽन्तराधिकारो ज्ञातव्यः । अत्र पंचास्तिकायप्राभृतग्रंथे पूर्वोक्तक्रमेण सप्तगाथाभि: समयशब्दपीठिका, चतुर्दशगाथाभिर्द्रव्यपीठिका, पंचगाथाभिर्निश्चयव्यवहारकालमुख्यता, त्रिपंचाशद्गाथाभिजीवास्तिकायव्याख्यानं दशगाथाभि: पुद्गलास्तिकायव्याख्यानं, सप्तगाथाभिधर्माधर्मास्तिकाद्वयविवरणं, सप्तगाथाभिराकाशास्तिकायव्याख्यानं अष्टगाथाभिश्चूलिकामुख्यत्वमित्येकादशोत्तरशतगाथाभिरष्टोत्तराधिकारा गताः । इति श्रीजयसेनाचार्यकृतायां तात्पर्यवृत्तौ पंचास्तिकायषड्द्रव्यप्रतिपादनं नाम प्रथमो महाधिकारः समाप्त ।।१।। हिंदी ता० -उत्थानिका-आगे दुःखोंसे छूटनेका जो उपाय है उसका क्रम कहते हैं अन्वय सहित सामान्यार्थ-[एतद8] इस ग्रन्थके सारभूत आत्म पदार्थको [ मुणिऊण } जान करके [तदणुगमणुज्जुदो] उसका अनुभव करनेका उद्यमी [ जीवो ] जीव [ णिहदमोहो] मिथ्यादर्शनका नाश करके [पसमियरागहोसो ] राग द्वेषको शांत करता हुआ ( हृदपरावरो) संसारसे पार (हवदि) हो जाता है । विशेषार्थ-इस प्रत्यक्षीभूत नित्य आनंदमयी एक शुद्ध जीवास्तिकाय रूप पदार्थको

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