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षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन राग और द्वेषको [ मुयदि ] छोड़ देता है [ सो] सो [ दुक्खपरिमोक्खं ] दुःखोंसे मुक्ति [गाहदि ] पाता है।
विशेषार्थ-इस ग्रन्थका नाम पंचास्तिकाय संग्रह इस ही लिये है कि इसमें पाँच अस्तिकाय और छः द्रव्योंका संक्षेपसे कथन है । मुख्यतासे इसमें शुद्ध जीवास्तिकायका कथन है जो परम समाधिमें रत जीवोंको मोक्षमार्गपनेसे सारभूत है । यद्यपि द्वादशांग बहुत विस्ताररूप है तथापि यह ग्रन्थ उसीका सार है, जैसा पहले कह चुके हैं, उस तरह इस ग्रन्थको समझकर अनंत ज्ञानादिगुण सहित वीतराग परमात्मासे विलक्षण हर्ष विषाद को तथा आगामीकाल में रागादि दोषों को उत्पन्न करनेवाले ककि आश्रवको पैदा करनेवाले रागद्वेषको जो भव्यजीव छोड़ देता है, वही जीव निर्विकार आत्माकी प्राप्तिकी भावनासे उत्पन्न जो परम आह्वादरूप सुखामृत उससे विपरीत नाना प्रकार शारीरिक और मानसिक चार गति सम्बन्धी दुःख उससे छूट जाता है। यह अभिप्राय है ।।१०३।। दुःखविमोक्षकरणक्रमाख्यानमेतत् । मुणिऊण एतदद्वं तदणु-गम-णुज्जदो णिहद-मोहो । पसभिय-राग-दोसो हवाद हद-परापरो जीवो ।।१०४।।
ज्ञात्वैतदर्थं तदनुगमनोधतो निहतमोहः ।
प्रशमितरागद्वेषो भवति हतपरापरो जीवः ।।१०४।। एतस्थ शास्त्रस्यार्थभूतं शुद्धचैतन्यस्वभावमात्मानं कश्चिज्जीवस्तावज्जानीते । ततस्तमेवानुगंतुमुद्यमते । ततोऽस्य क्षीयते दृष्टिमोहः ततः स्वरूपपरिचयातुन्मज्जति ज्ञानज्योतिः । ततो रागद्वेषौ प्रशाम्यतः । ततः उत्तरः पूर्वश्च बंधो विनश्यति । ततः पुनबंधहेतुत्वाभावात् स्वरूपस्थो नित्यं प्रतपतीति ।।१०४।।
इति समयव्याख्यायामंतींतषड्द्रव्यपञ्चास्तिकायवर्णनः प्रथमः श्रुतस्कंधः समाप्त: ।।१।। . अन्वयार्थ----[ जीव: ] जीव ( एतद् अर्थ ज्ञात्वा ) इस अर्थको जानकर ( तदनुगमनोद्यतः ) उसके अनुसरणका उद्यम करता हुआ ( निहतमोहः ) हतमोह होकर ( दर्शनमोहका क्षय कर ) ( प्रशमितरागद्वेषः ) रागद्वेषको प्रशमित-निवृत्त करके, ( हतपरापरः भवति ) उत्तर और पूर्व बंधका जिसके नाश हुआ है ऐसा होता है।
टीका—यह दुःखसे विमुक्त होनेके क्रमका कथन है।
प्रथम, कोई जीव इस शास्त्रके अर्थभूत शुद्धचैतन्यस्वभाववाले आत्माको जानता है, इसलिये ( फिर ) उसीके अनुसरणका उद्यम करता है, इसलिये उसे दृष्टिमोहका ( दर्शन