________________
षड्द्रव्य - पंचास्तिकायवर्णन
विशेषार्थ - द्रव्यके लक्षण तीन हैं जैसा कि पीठिकाके व्याख्यानमें कहा गया है अर्थात् जिसमें सदा सत्ता पाई जावे, जिसमें उत्पाद व्यय ध्रौव्यपना हो तथा जो गुणपर्यायका धारी हो वह द्रव्य है इन छहोंमें तीनों लक्षण पाए जाते हैं, इसलिये ये छहोंद्रव्य हैं। इनमेंसे कालद्रव्य कायवान नहीं हैं क्योंकि जैसा वह प्रदेशोंका अखंड समुदायरूप कायपना विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावधारी शुद्ध जीवास्तिकाय आदि पाँच अस्तिकायों के है वैसा कालाणुओंके नहीं है जैसा कहा है
२६८
जैसे रत्नोंका ढेर सब स्थान रोककर भी भिन्न-भिन्न रतनको रखता है वैसे कालाणु सब लोकाकाशमें एक एक प्रदेशपर एक एक करके व्याप्त हैं । तथापि वे परस्पर कभी मिलते नहीं हैं वे कालाणु असंख्यात द्रव्य हैं। कालाणु गणना में लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या के बराबर असंख्यात द्रव्य हैं। यहाँ यह तात्पर्य है कि केवलज्ञान आदि शुद्ध गुण सिद्धत्व अगुरु लघुत्व आदि शुद्धपर्याय सहित जो शुद्ध जीव द्रव्य हैं, उसके सिवाय शेष पाँच द्रव्य त्यागने योग्य हैं ।। १०२ ।।
इसतरह कालके अस्तिकायपना नहीं है, परन्तु द्रव्यसंज्ञा है ऐसा व्याख्यान करते हुए पाँच स्थलमें गाथा सूत्र कहा ।
तदवबोधफलपुरस्सरः पञ्चास्तिकायव्याख्योपसंहारोऽयम् ।
एवं पवयणसारं पंचत्थिय संगहं वियाणित्ता ।
जो मुयदि राग-दोसे सो गाहदि दुक्ख परिमोक्खं ।। १०३ ।। एवं प्रवचनसारं पञ्चास्तिकायसंग्रहं विज्ञाय |
यो मुञ्चति रागद्वेषौ स गाहते दुःखपरिमोक्षम् ।। १०३ ।।
न खलु कालकलितपञ्चास्तिकायेभ्योऽन्यत् किमपि सकलेनापि प्रवचनेन प्रतिपाद्यते । ततः प्रवचनसार एवायं पश्चास्तिकायसंग्रहः । यो हि नामामुं समस्तवस्तुतत्त्वाभिधायिनमर्थतोऽर्थितयावबुध्यात्रैव जीवास्तिकायांतर्गतमात्मानं स्वरूपेणात्यंतविशुद्धचैतन्यस्वभावं निश्चित्य परस्परकार्यकारणीभूतानादिरागद्वेषपरिणामकर्मबन्धसंततिसमारोपितस्वरूपविकारं तदात्वेऽनुभूयमानमवलोक्य तत्कालोन्मीलितविवेकज्योतिः कर्मबंधसंततिप्रवर्तिकां रागद्वेषपरिणतिमत्यस्यति, स खलु जीर्यमाणस्नेहो अघन्यस्नेहगुणाभिमुखपरमाणुवद् भाविबंधपराङ्मुखः पूर्वबंधात्प्रच्यवमानः शिखितप्तोदकदौस्थ्यानुकारिणो दुःखस्य परिमोक्षावगाहत इति ।। १०३ ।।
अन्वयार्थ - [ एवम् ] इस प्रकार ( प्रवचनसारं ) प्रवचनके सारभूत [ पंचास्तिकायसंग्रहं ]