Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचास्तिकाय प्राभृत
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पुद्गल (च) और ( जीवाः ) जीव ( सब ) [ द्रव्यसंज्ञां लभते ] 'द्रव्य' संज्ञाको प्राप्त करते हैं, (कालस्य तु ) परन्तु कालको [ कायत्वम् ] कायपना [ न अस्ति ] नहीं है ।
टीका-यह, कालको द्रव्यपनेके विधानका और अस्तिकायपनेके निषेधका कथन हैं, जिस प्रकार वास्तवमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यके समस्त लक्षणों का सद्भाव होनेसे 'द्रव्य' संज्ञाको प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार काल भी ( द्रव्यके समस्त लक्षणों का सद्भाव होनेसे ) 'द्रव्य' संज्ञाको प्राप्त करता है। इस प्रकार छह द्रव्य हैं। किन्तु जिस प्रकार जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाशको द्वि-आदि प्रवेश जिसका लक्षण है ऐसा अस्तिकायपना है, उसी प्रकार कालाणुओंका - यद्यपि उनकी संख्या लोकाकाशके प्रदेशों जितनी है तथापि - एकप्रदेशीपनेके कारण अस्तिकायपना नहीं है। इसी ही कारण यहाँ पंचास्तिकायके प्रकरणमें मुख्यतः कालका कथन नहीं किया गया है, ( परंतु ) जीव- पुद्गलोंके परिणाम द्वारा ज्ञात होती है, ऐसी उसकी पर्यायें होनेसे तथा जीव पुगलों के परिणामकी अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा जिसका अनुमान होता है ऐसा वह (काल) द्रव्य होनेसे, उसे यहाँ अन्तर्भूत किया गया है ।। १०२ ।। इस प्रकार कालव्या व्याख्यान सना हुआ।
सं०ता० अथ कालस्य द्रव्यसंज्ञाविधानं कायत्वनिषेधं च प्रतिपादयति
एदे – एते प्रत्यक्षीभूताः, कालागासी धम्माधम्मा य पोग्गला जीवाकालाकाशधर्माधर्मपुद्गल-जीवाः कर्तारः । लब्धंति-लभंते । कां । दव्वसण्णं द्रव्यसंज्ञां । कस्मादिति चेत् ? सत्तालक्षणमुत्पादव्ययभ्रौव्यलक्षणं गुणपर्यायलक्षणं चेति द्रव्यपीठिकाकथितक्रमेण द्रव्यलक्षणत्रययोगात् । कालस्य य णत्थि कायत्तं कालस्य च नास्ति कायत्वं । तदपि कस्मात् । विशुद्धदर्शनज्ञानस्वभावशुद्धजीवास्तिकायप्रभृति - पंचास्तिकायानां बहुप्रदेशप्रचयत्वलक्षणं कायत्वं यथा विद्यते न तथा कालाणूनां
"लोगागासपदेसे एक्केक्के जे ठिया हु एक्केक्का ।
रयणाणं रासी मिव ते कालाणू असंखदव्वाणि"
इति गाथाकथितक्रमेण लोकाकाशप्रमितासंख्येयद्रव्याणामपीति । अत्र केवलज्ञानादिशुद्धगुणसिद्धत्वागुरुलघुत्वादिशुद्धपर्यायसहितशुद्धजीवद्रव्यादन्यद्रव्याणि हेयानीति भावः || १०२ ॥ एवं कालस्य द्रव्यास्तिकायसंज्ञाविधिनिषेधव्याख्यानेन पंचमस्थले गाथासूत्रं गतं ।
हिंदी ता० - उत्थानिका- आगे कहते हैं कि कालद्रव्य तो है परन्तु कायरूप नहीं है
अन्वय सहित सामान्यार्थ - [ ए ] ये पूर्वमे कहे हुए [ कालागासा धम्माधम्मा य पोग्गला जीवा ] काल, आकाश, धर्म, अधर्म, पुल और जीव ( दव्वसणं) द्रव्य नामको [ लब्धंति ] पाते हैं [दु] परन्तु [ कालस्स ] काल द्रव्यके [ कायतं ] कायपना [ णत्थि ] नहीं है।