Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन विशेष स्वसंवेदन ज्ञानके द्वारा जान करके व उसी शुद्ध जीवास्तिकाय रूप पदार्थका लक्ष्य करके उसी में तन्मय होनेका उद्यम करनेवाला कोई भव्यजीव 'शुद्धात्मा ही ग्रहण करने योग्य है' इस रुचिरूप सम्यग्दर्शनको रोकनेवाले दर्शनमोहका अभाव करके पीछे निश्चल आत्मामें परिणमन रूप निश्चय चारित्रके प्रतिकूल चारित्रमोहका क्षय करके वीतरागी हो जाता है।
भावार्थ-पूर्वमें कहे प्रकारसे आपा परका भेदज्ञान होनेपर शुद्धात्माकी रुचिरूप सम्यग्दर्शन होता है फिर शुद्धात्मामें स्थितिरूप चारित्र होता है, पीछे इसी अभ्याससे संसारके पार हो जाता है । यहाँ परमानंद व परमज्ञान आदि गुणोंका आधार होनेसे पर शब्दसे मोक्ष कहा जाता है-पर शब्दसे वाच्य जो मोक्ष उसमें अपर अर्थात् भिन्न जो संसार उसका नष्ट करनेवाला हो जाता है ।।१०४।।
इस तरह पंचास्तिकायके ज्ञानका फल कहते हुए दो गाथाएँ समाप्त हुईं। इस तरह पहले महा अधिकारमें आठ गाथाओंके द्वारा छः स्थलोंसे चूलिका नामा आठवाँ अंतर अधिकार जानना योग्य है।
इस पंचास्तिकाय नामके प्राभृत ग्रन्थमें पहले कहे हुए क्रमसे सात गाथाओंके द्वारा समय शब्दको पीठिका है फिर चौदह गाथाओंमें द्रव्य पीठिका है। फिर पाँच गाथाओंसे निश्चय व्यवहारकालकी मुख्यता है। फिर तिरपन गाथाओंसे जीवास्तिकायका व्याख्यान है। फिर दश गाथाओंसे पुद्गलास्तिकायका व्याख्यान है । फिर सात गाथाओंसे धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय दोनोंका वर्णन है। फिर सात गाथाओंसे आकाशास्तिकायका व्याख्यान है। फिर आठ गाथाओंसे चूलिकाकी मुख्यता है। इस तरह एकसौ ग्यारह गाथाओंके द्वारा आठ अंतर अधिकार समाप्त हुए । श्री अमृतचंद्र महाराजने १०४ गाथाओंकी ही टीका की है, छ: गाथाएँ ज्ञान सम्बन्धकी व एक पुनल स्कंधके भेदोंकी नहीं की है।
इस प्रकार श्री जयसेन आचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें पांच अस्तिकाय और छःद्रव्यको कहनेवाला प्रथम महाअधिकार समाप्त हुआ ।।१।।
ज