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पंचास्तिकाय प्राभृत
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हिंदी ता० - उत्थानिका- आगे कहते हैं कि छः द्रव्योंका समुदाय लोक है उससे बाहर
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अनंत आकाश अलोक है ।
अन्वयसहित सामान्यार्थ - ( जीवा ) अनंत जीवा ( पोग्गलकाया ) अनंत पुल स्कंध व अणु ( धम्माधम्मा ) धर्म अधर्मद्रव्य ( य) और असंख्यात कालद्रव्य ( लोगदो ) इस लोकसे (अण्णा) बाहर नहीं है । ( तत्तो ) इस लोकाकाशसे (अणण्यां) जो जुदा नहीं है ऐसा ( अण्णं ) शेष ( आयासं) आकाश ( अंतवदिरित्तं ) अंतरहित अनंत है ।
विशेषार्थ - इस सूत्र में सामान्यसे पदार्थोंका लोकाकाशसे एकपना कहा गया है तथापि निश्चयसे सर्व ही जीव जो मूर्ति रहित हैं, केवलज्ञानमय हैं, सहज परमानंदमय हैं, नित्य हैं और कर्म मैलसे शून्य है सो अपने लक्षणोंसे शेषद्रव्योंसे भिन्न है तथा शेषद्रव्य भी अपने- अपने लक्षणोंको रखते हुए जीवोंसे भिन्न हैं । इस कारण से यह जाना जाता है कि परस्पर एक क्षेत्रमें रहते हुए भी इनमें संकर व्यतिकर दोष नहीं आता है, अर्थात् कोई द्रव्य किसीसे मिलकर एक नहीं हो जाता है, न कोई द्रव्य विखरकर अनेक हो जाता है ।। ९९ ।।
इसतरह लोकाकाश और अलोकाकाश दोनोंके स्वरूपका समर्थन करते हुए प्रथमस्थलमें दो गाथाएँ कहीं ।
आकाशस्यावकाशैकहेतोर्गतिस्थितिहेतुत्वशङ्कायां दोषोपन्यासोऽयम्
आगासं अवगासं गमण-हिदि- कारणेहिं देदि जदि ।
उड्डुं गदि - प्पधाणा सिद्धा चिट्ठति किध तत्थ ।। ९२ ।। आकाशमवकाशं गमनस्थितिकारणाभ्यां ददाति यदि ।
ऊर्ध्वगतिप्रधानाः सिद्धा: तिष्ठन्ति कथं तत्र ।। ९२ । ।
यदि खल्वाकाशमवगाहिनामवगाहहेतुर्गतिस्थितिमतां गतिस्थितिहेतुरपि स्यात्, तदा सर्वोत्कृष्टस्वाभाविकोर्ध्वगतिपरिणता भगवंतः सिद्धा बहिरङ्गांतरङ्गसाधनसामग्र्यां सत्यामपि कुतस्तत्राकाशे तिष्ठति इति ।। ९२ । ।
अन्वयार्थ - [ यदि आकाशम् ] यदि आकाश ( गमनस्थितिकारणाभ्याम् ) गति-स्थितिके कारण सहित [ अवकाशं ददाति ] अवकाश देता हो ( अर्थात् यदि आकाश अवकाशहेतु भी हो और गति स्थितिहेतु भी हो ) तो ( ऊर्ध्वगतिप्रधानाः सिद्धाः ) ऊर्ध्वगतिप्रधान सिद्ध ( तत्र ) उसमें ( आकाशमें ) ( कथम् ) क्यों [ तिष्ठन्ति ] स्थिर हों ? ( आगे गमन क्यों न करें ? )