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पंचास्तिकाय प्राभृत
२५३ हिंदी ता०-उत्थानिका-आगे आकाशमें गति और स्थितिमें कारणपना नहीं है, इसकी सिद्धि करनेको और भी कारण बताते हैं
अन्वयसहित सामान्यार्थः -[जदि ] यदि ( आगासं) आकाश द्रव्य [तेसिं ] उन जीव पुद्गलोंके ( गमणहेदू) गमनका कारण व ( ठाणकारणं ) ठहरनेका कारण [हवदि ] होजावे तो ( अलोगहाणी) अलोकाकाशकी हानि [ पसजदि ] हो जावे [य] और [ लोगस्स] लोकाकाशकी [ अंतपरिबुटी ] मर्यादा बढ़ जावे ।
विशेषार्थ-यदि आकाश गति व स्थितिमें कारण हो तो लोकाकाशके बाहर भी आकाशकी सत्ता है तब जीव और पुगलोंका गमन अनंत आकाशमें भी हो जावे इससे अलोकाकाश न रहे और लोककी हद्द (सीमा) बढ़ जावे लेकिन ऐसा नहीं है । इसी कारणसे यह सिद्ध है कि आकाश गति और स्थितिके लिये कारण नहीं है ।।९४।।
आकाशस्य गतिस्थितिहेतुत्वनिरासव्याख्योपसंहारोऽयम्,तह्मा धम्मा-धम्मा गमण-ट्ठिदि-कारणाणि णागासं । इदि जिणवरेहि भणिदं लोग-सहावं सुणताणं ।।९५।।
तस्माद्धर्माधम्मौ गमनस्थितिकारणे नाकाशं ।
इति जिनवरैः भणितं लोकस्वभावं शृण्वताम् ।।९५।। धर्माधर्मावेव गतिस्थितिकारणे नाकाशमिति ।।९५।।
अन्वयार्थ ( तस्मात् ) इसलिये ( गमनस्थितिकारणे ) गति और स्थितिके कारण ( धर्माधर्मों ) धर्म और अधर्म हैं, (न आकाशम् ) आकाश नहीं है । ( इति ) ऐसा ( लोकस्वभावं शृण्वताम ) लोकस्वभावके श्रोताओंको ( जिनवरैः भणितम् ) जिनवरोंने कहा है।
टीका—यह, आकाशको गतिस्थितिहेतुत्व होनेके खंडन सम्बन्धी कथनका उपसंहार है। धर्म और अधर्म ही गति और स्थितिके कारण हैं, आकाश नहीं ।।९५।।
सं० ता०-अथाकाशस्य गतिस्थितिकारणनिराकरणव्याख्यानोपसंहारः कथ्यते. तस्माद्धर्माधमौं गमनस्थितिकारणे, न चाकाशं इति जिनवरैणितं । केषां संबन्धित्वेन । भव्यानां । किकुर्वतां । समवशरणे लोकस्वभावं शृण्वतामिति भावार्थ: ।।१५।। एवं धर्माधर्मी गतिस्थितियोः कारणं न चाकाशमिति कथन रूपेण द्वितीयस्थले गाथाचतुष्टयं गतं ।
हिंदी ता-उत्थानिका-आगे आकाशगति व स्थितिमें कारण नहीं है इसी व्याख्यानको संकोच करके कहते हैं