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पंचास्तिकाय प्राभृत
२५१ यस्मादुपरिस्थानं सिद्धानां जिनवरैः प्रज्ञप्तं ।
तस्माद्गमनस्थानमाकाशे जानीहि नास्तीति ।।९३।।। 'यतो गत्वा भगवंतः सिद्धाः लोकोपर्यवतिष्ठते, ततो गतिस्थितिहेतुत्वमाकाशे नास्तीति निश्चेतव्यम् । लोकालोकावच्छेदको धर्माधर्मावेव गतिस्थितिहेतू मंतष्याविति ।।९३।।
अन्वयार्थ-[यस्मात् ] चूंकि [ जिनवरैः ] जिनवरोंने ( सिद्धानाम् ) सिद्धोंकी [ उपरिस्थानं] लोकके ऊपर स्थिति ( प्रज्ञप्तम् ) कही है ( तस्मात् ) इसलिये ( गमनस्थानम् आकाशे न अस्ति ) गति स्थिति ( हेतुपना ) आकाशमें नहीं होता ( इति जानीहि ) ऐसा जानो ।
टीका-यह, स्थितिपक्ष सम्बन्धी कथन है।
चूंकि सिद्ध भगवन्त गमन करके लोकके ऊपर स्थिर होते हैं अत: गतिस्थितिहेतुत्व आकाशमें नहीं है ऐसा निश्चय करना, लोक और अलोकका विभाग करनेवाले धर्म तथा अधर्म ही गति तथा स्थितिके हेतु मानना ।।९३।।
सं० ता०-अथ स्थितिपक्ष प्रतिपादान, यस्मदुमति व्यानं सानां गिना ज्ञप्तं तस्माद् गमनस्थानमाकाशे नास्ति जानीहीति । तथाहि यस्मात्पूर्वगाथायां भणितं लोकाग्रेऽवस्थानं । केषां ? अंजनसिद्धपादुकासिद्धगुटिकासिद्धदिग्विजयसिद्धखगसिद्धादिलौकिकसिद्धविलक्षणानां सम्यक्त्वा-द्यष्टगुणांतर्भूतनिर्नामनिर्गोत्रामूर्तत्वाद्यनंतगुणलक्षणानां सिद्धानां तस्मादेव ज्ञायते नभसि गतिस्थितिकारणं नास्ति किंतु धर्माधर्मावेव गतिस्थित्योः कारणमित्यभिप्रायः ॥९३।। हिंदी ता०-उत्थानिका-आगे स्थिति पक्षको कहते हैं
अन्वयसहित सामान्यार्थ-( जहा ) क्योंकि [जिणवरेहिं] श्री जिनेन्द्रोंने ( सिद्धाणं) सिद्धोंका [ उवरिठ्ठाणं ] लोकके अग्रभागमें ठहरना ( पण्णत्तं ) कहा है ( तया) इसलिये (आयासे) आकाशमें [गमणट्ठाणं ] गमन और स्थितिमें सहकारीपना (पस्थित्ति) नहीं है-ऐसा [ जाण] जानो।
विशेषार्थ-सिद्ध भगवान् अनन्तसिद्ध, पादुकासिद्ध, गुटिकासिद्ध, दिग्विजयसिद्ध, खड्गसिद्ध इत्यादि लौकिक सिद्धोंसे विलक्षण हैं। जिनके सम्यग्दर्शन आदि आठ गुण मुख्य हैं इन्ही में गर्भित नामरहित, गोत्ररहित, मूर्तिरहितपना आदि अनंतगुण हैं ऐसे सिद्धोंका निवास लोकके अग्रभागमें है जैसा पहली गाथामें कह चुके हैं। इसीसे ही जाना जाता है कि आकाशमें गति और स्थिति कारणपना नहीं है, किन्तु धर्म और अधर्म ही गति और स्थितिको कारण हैं, यह अभिप्राय है ।।९३।।