Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचास्तिकाय प्राभृत
२४१ किससे निवारा जा सकता है ? (किसीसे नहीं निवारा जा सकता ) इसलिये लोक और अलोकका विभाग सिद्ध नहीं होगा किन्तु यदि जीव-पुद्गलकी गतिके और गतिपूर्वकस्थितिके बहिरंग हेतुओंके रूपमें धर्म और अधर्मका सद्भाव स्वीकार किया जाये तो लोक और अलोक का विभाग ( सिद्ध ) होता है। ( इसलिये धर्म और अधर्म विद्यमान हैं।) धर्म और अधर्म दोनों परस्पर पृथग्भूत अस्तित्वसे निष्पन्न होनेसे विभक्त [भिन्न ] हैं, एकक्षेत्रावगाही होनेसे अविभक्त ( अभिन्न ) हैं, समस्त लोकमें प्रवर्तमान जीव-पुद्गलोंको गति-स्थितिमें निष्क्रियरूपसे अनुग्रह करते हैं इसलिये लोकप्रमाण हैं ।।८७।।
सं० ता०-अथ धर्माधर्मसद्भावे साध्ये हेतुं दर्शयति, जादो-जातं । किं कर्तृ । अलोगलोगो— लोकालोकद्वयं । कस्माज्जातं । जेसिं सम्भावदो य-ययोर्धर्माधर्मयो: स्वभावतश्च । न केवलं लोकालोकद्वयं जातं । गमणठिदी-गतिस्थितिश्चैतौ द्वौ। कथंभूतौ । दोवि य मया-द्वौ धर्माधर्मी मतौ संमतौ स्त: अथवा पाठांतरं "अमया" अमयौ न केनापि कृतौ। विभत्ता-विभक्तो, अविभत्ता-अविभक्तौ, लोयमेत्ता य-लोकमात्रौ चेति । तद्यथा-धर्माधर्मी विचंते लोकालोकसद्भावात् षद्रव्यसमूहात्मको लोकः तस्माद्वहिर्भूतं शुद्धमाकाशमलोकः, तत्र लोके गतिं तत्पूर्वकस्थितिमास्कंदतो: स्वीकुर्वतोर्जीवपुद्गलयोर्यदि बहिरंगहेतुभूतधर्माधर्मों न स्यातां तदा लोकादहिभूतबाह्यभागेपि गति: केन नाम निषिध्यते । न केनापि ततो लोकालोकविभागादेव ज्ञायते धर्माधर्मी विद्यते । तौ च किंविशिष्टौ । भित्रास्तित्वनिष्पन्नत्वात्रिश्चयनयेन पृथग्भूतौ एकक्षेत्राबगाहत्वादसद्भूतव्यवहारनयेन सिद्धराशिवदभिन्नौ सर्वदैव नि:क्रियत्वेन लोकव्यापकत्वाल्लोकमात्राविति सूत्रार्थः ।।८७।।
हिंदी ता० -उत्थानिका-आगे धर्म और अधर्मद्रव्यकी सत्ताको सिद्ध करनेके लिये हेतु दिखाते हैं
अन्वयसहित सामान्यार्थ-[ जेसि ] जिन धर्म अधर्म द्रव्योंकी [ सम्भावदो ] सत्ता होनेसे [अलोगलोगो] अलोक और लोक [जादो] हुए हैं [य] और [गमणठिदी] जीव पुगलोंकी गमन और स्थिति होती है [ दो वि य] वे दोनों ही धर्म अधर्म [विभत्ता] परस्पर भिन्न व [ अविभत्ता] एक जगह रहनेसे अभिन्न [य लोयमेत्ता] और लोकाकाश प्रमाण [मतौ ] माने गए हैं।
विशेषार्थ-वृत्तिकारने "अमया" पाठांतर लेकर यह अर्थ किया है कि ये दोनों ही किसी के किये नहीं है अकृत्रिम हैं। जो छः द्रव्योंका समूह है उसे लोक कहते हैं, उससे बाहर जो शुद्ध आकाश मात्र है उसको अलोक कहते हैं । इस लोक और अलोककी सत्ता है इसीसे धर्म और अधर्मकी सत्ता सिद्ध है। यदि इस लोकमें जीव और परलोके चलने में और चलते-चलते ठहर जानेमें बाहरी निमित्तकारण धर्म और अधर्म द्रव्य न होवें सो लोकके बाहरीभागमें गमन