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षड्व्य-पंचास्तिकायवर्णन आता है, वैसे धर्म द्रव्य भी स्वयं ठहरा हुआ अपने ही उपादान कारणसे चलते हुए जीव और पुद्गलोंको बिना प्रेरणा किये हुए उनके गमनमें बाहरी निमित्त हो जाता है। यद्यपि धर्मास्तिकाय उदासीन है तो भी जीव पुनलोंकी गतिमें हेतु होता है । जैसे जल उदासीन है तो भी यह मछलियोंके अपने ही उपादान बलसे गमनमें सहकारी होता है। जैसे स्वयं ठहरते हुए घोड़ों को पृथ्वी व पथिकोंको छाया सहायक है वैसे ही अधर्मास्तिकाय स्वयं ठहरा हुआ है तो भी अपने उपादान कारण से ठहरे हुए जीव और मुगलोंकी स्थितिमें बाहरी कारण होता है ऐसा भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचार्य देवका अभिप्राय है ।।८८।। थर्माधर्मयोरौदासीन्ये हेतूपन्यासोऽयम् । विज्जदि जेसिं गमणं ठाणं पुण तेसि-मेव संभवदि । ते सग-परिणामेहिं दु गमणं ठाणं च कुव्वंति ।। ८९।। विद्यते येषां गमनं स्थानं पुनस्तेषामेव संभवति ।
ते स्वकपरिणामैस्तु गमनं स्थानं च कुर्वन्ति ।। ८९।। धर्मः किल न जीवपुद्गलानां कदाचितिहेतुत्वमभ्यस्यति, न कदाचित्स्थितिहेतुत्वमधर्मः तौ हि परेषां गतिस्थित्योदि मुख्यहेतू स्यातां तदा येषां गतिस्तेषां गतिरेव न स्थितिः, येषां स्थितिस्तेषां स्थितिरेव न गतिः । तत एकेषामपि गतिस्थितिदर्शनादनुमीयते न तौ तयोर्मुख्यहेतू । किंतु व्यवहारनयव्यवस्थापितौ उदासीनौ । कथमेवं गतिस्थितिमतां पदार्थानां गतिस्थिती भवत इति चेत्, सर्वे हि गतिस्थितिमंतः पदार्थाः स्वपरिणामैरेव निश्चयेन गतिस्थिती कुर्वतीति ।।८९।।
इति धर्माधर्मद्रव्यास्तिकायव्याख्यानं समाप्तम् । अन्वयार्थ-( येषां गमनं विद्यते ) जिनके गति होती है ( तेषाम् एव पुन: स्थानं संभवति ) उन्हींके फिर स्थिति होती है [ और जिन्हें स्थिति होती है उन्हींको फिर गति होती है । ] ( ते तु ) वे ( गतिस्थितिमान पदार्थ ) तो ( स्वकपरिणामैः ) अपने परिणामोंसे ( गमनं स्थानं च ) गति और स्थिति ( कुर्वन्ति ) करते हैं।
टीका—यह, धर्म और अधर्मकी उदासीनताके सम्बन्धमें हेतु कहा गया है।
वास्तवमें धर्म जीव-पुद्गलोंको कभी गतिहेतु नहीं होता, अधर्म-कभी स्थितिहेतु नहीं होता, क्योंकि वे परको गतिस्थितिके यदि मुख्य हेतु (प्रेरक हेतु ) हों, तो जिन्हें गति हो उन्हें गति ही रहना चाहिये, स्थिति नहीं होना चाहिये, और जिन्हें स्थिति हो उन्हें स्थिति ही रहना चाहिये, गति नहीं होना चाहिये । किन्तु एकको ही ( उसी एक पदार्थ को ) गति और स्थिति