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षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन ___ अन्वयसहित सामान्यार्थ-( एयरसवण्णगंधं दो फासं) जिसमें एक कोई रस एक कोई वर्ण एक कोई गंध व दो स्पर्श हों ( सद्दकारणं) जो शब्दका कारण हो ( असई) स्वयं शब्द रहित हो ( खंधंतरिदं ) जो स्कंथसे जुदा हो ( तं दव्वं ) उस व्यको ( परमाणु) परमाणु बियाणे) जामो ।
विशेषार्थ-परमाणुमें तीखा, चरपरा, कसायला, खट्टा, मीठा, इन पांच रसोंमेंसे एक रस एक कालमें रहता है। शक्ल, पीत, रक्त, काला, नीला इन पांच वर्षों में से एक वर्ण एक कालमें रहता है । सुगंध, दुर्गंध दो प्रकार गंध पर्यायोंमेंसे एक कोई गंध एक कालमें रहती है । शीत वं उष्णण स्पोंमें एक कोई स्पर्श तथा स्निग्ध रूक्ष स्पर्शोमें एक कोई स्पर्श ऐसे दो स्पर्श एक कालमें रहते हैं। जैसे यह आत्मा व्यवहारनयसे अपने तालु ओठ आदिके व्यापारसे शब्दका कारण होता हुआ भी निश्चयनयसे अतीन्द्रिय ज्ञानका विषय होनेसे शुद्धज्ञानका विषय है, शब्दका विषय नहीं है और न वह स्वयं शब्दादि पुद्गल पर्यायरूप होता है इस कारणसे शब्दरहित है, तैसे परमाणु भी शब्दका कारणरूप होकर भी एक प्रदेशी होनेसे शब्दकी प्रगटता नहीं करनेसे अशब्द है व जो ऊपर कहे हुए वर्णादि गुण व शब्द आदि पर्याय सहित स्कन्ध है उससे भिन्न द्रव्यरूप परमाणु है उसे परमात्माके समान जानो। जैसे परमात्मा व्यवहारसे द्रव्य कर्म और भावकर्म के भीतर रहता हुआ भी निश्चयसे शुद्ध बुद्ध एक स्वभावरूप ही है तैसे परमाणु भी व्यवहारसे स्कन्धोंके भीतर रहता हुआ भी निश्चयसे स्कंधसे बाहर शुद्ध द्रव्यरूप ही है । अथवा स्कंधांतरितका अर्थ है कि स्कंधसे पहलेसे ही भिन्न है यह अभिप्राय है ।।८१।।
इसतरह परमाणु द्रव्य है और उसके वर्णादि गुणस्वरूपफ्ना व उससे शब्दादि पर्याय होती है। इत्यादि कहते हुए पांचवीं गाथा पूर्ण हुई। ऐसे परमाणु द्रव्यकी अपेक्षा दूसरे स्थलमें पांच गाथाएँ कहीं। सकलपुद्गलविकल्पोपसंहारोऽयम् । उवभोज्ज-मिंदिएहिं य इंदिय-काया मणो य कम्माणि । जं हवदि मुत्त-मण्णं तं सव्वं पुग्गलं जाणे ।। ८२।।
उपभोग्यमिन्द्रियैश्चेन्द्रियकाया मनश्च कर्माणि । यद्भवति मूर्तमन्यत् तत्सर्वं पुद्गलं जानीयात् ।। ८२।।