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पंचास्तिकाय प्राभृत
१८३ अन्वय सहित सामान्यार्थ-( जदि) यदि ( भावो) रागादिभाव ( कम्मकदो) कर्मकृत हो तो ( किध) किस तरह ( अत्ता) आत्मा ( कम्मस्य कत्ता होदि) द्रव्यकर्मोका कर्ता होवे क्योंकि एकांतसे कर्मकृत भाव लेनेपर आत्माके रागादि भावके बिना उसके द्रव्यकर्मोका बन्य नहीं हो सकता है, क्योंकि ( अत्ता ) यह आत्मा ( सगं भावं) अपने ही भावको ( मुक्ता) छोड़कर ( अण्णं किंचि वि) और कुछ भी द्रव्यकर्म आदिको ( ण कुणदि) नहीं करता है।
विशेषार्थ-आत्मा यदि सर्वथा रागादि भावोंका अकर्ता माना जावे ऐसा पूर्व पक्ष होनेपर दूसरी गाथामें इसका खण्डन है । एक व्याख्यान तो यह है । दूसरा व्याख्यान यह है कि इसी गाथामें ही पूर्वपक्ष है तथा इसका समाधान है इससे अगली गाथामें वस्तुकी मर्यादाका ही कथन है । किस तरह सो कहते हैं-पूर्व कहे प्रकारसे यदि कर्म ही रागादि भावोंके कर्ता हों तो आत्मा पुण्य पापादि कर्मोकर कर्ता नहीं होसकेगा ऐसा दूषण देने पर सांख्यमतानुसारी शिष्य कहता है कि हमारा मत यह है
यह जीव कर्मका कर्ता नहीं है, निर्गुण है, शुद्ध है, नित्य है, सर्वव्यापी है, निक्रिय है, अमूर्तिक है, चेतन है, मात्र भोगनेवालग है । राद कपिलला मत है। इस वचनसे हमारे मतसे तो आत्माके कर्मोका अकर्तापना होना भूषण ही है, दूषण नहीं है । इसी बातका खण्डन करते हैं कि जैसे शुद्ध निश्चयनयसे आत्मा रागादि भावोंका कर्ता नहीं है ऐसा ही यदि अशुद्ध निश्चयनयसे भी यह जीव अकर्ता हो तो उसके द्रव्यकोक बन्धका अभाव होगा । कर्मबंधन न होनेसे संसारका अभाव होगा तब फिर यह सर्वथा ही मुक्त रहेगा परन्तु यह बात प्रत्यक्षसे विरोधरूप है। यह अभिप्राय है । । ५९।।
इस तरह इस गाथाके प्रथम व्याख्यानमें पूर्व पक्ष किया गया। दूसरे व्याख्यानमें पूर्व पक्षका उत्तर भी दिया गया । ऐसी यह गाथा कही।
समय व्याख्या गाथा ६० पूर्वसूत्रोदितपूर्वपक्षसिद्धांतोऽयम्। भावो कम्म-णिमित्तो कम्मं पुण भाव-कारणं हवदि ।
ण दु तेसिं खलु कत्ता ण विणा भूदा दु कत्तारं ।। ६० ।। व्यवहारेण निमित्तमात्रत्वाज्जीवभावस्य कर्म कर्त, कर्मणोऽपि जीवभावः कर्ता, निश्चयेन तु न जीवभावानां कर्म कर्तृ, न कर्मणो जीवभावः । न च ते कारमंतरेण संभूयेते, यतो निश्चयेन जीवपरिणामानां जीवः कर्ता, कर्मपरिणामानां कर्म कर्तृ इति ।।६० ।।